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ताओ उपनिषद भाग ५
वि बिलकुल असहा
रहा है जो है,
प्रकट हो जाएगा
सपना होता है निजी और सत्य होता है सार्वभौम। ये कसौटियां हैं। जितने तुम सत्य के करीब पहुंचोगे उतना ही तुम दूसरे को भागीदार बना सकते हो। इसलिए तो बुद्ध, महावीर, कृष्ण, लाओत्से हजारों लोगों को भागीदार बना लेते हैं। हजारों लोगों को उस चीज के निकट ले आते हैं जो उन्हें दिखाई पड़ रही है। और हजारों लोगों को भी वह चीज दिखाई पड़ जाती है। अगर यह सपना हो तो इसमें कोई भागीदार नहीं हो सकता।
इसलिए तुमने कभी कवियों के अनुयायी न देखे होंगे। कवियों का कोई अनुयायी नहीं हो सकता। कैसे होगा? क्योंकि कवि का जो सत्य है वह सपने जैसा है। कवि ने जो जाना है वह उसकी कल्पना है। वह तुम्हें बुला कर दिखा नहीं सकता कि आओ, तुम भी देख लो। कवि बिलकुल असहाय है उस संबंध में।
कवि और ऋषि का यही फर्क है। ऋषि उस सत्य की बात कर रहा है जो है, जो उसने अपनी सारी कल्पनाओं को हटा कर जाना है। इसलिए सारी चेष्टा यही है साधक की कि कल्पनाएं हट जाएं, और वह प्रकट हो जाए जो है, उसे जान लूं जो है अपने आप में, मेरी कल्पनाओं के कारण नहीं। मेरे प्रत्यय, मेरी धारणाएं, मेरे विचार, सब हट जाएं, ताकि निर्मल सत्य का उदय हो सके, सार्वभौम सत्य का।
तुम बोले चले जा रहे हो-अकेले हो तो, नहीं अकेले हो तो। ज्ञानी ऐसा नहीं बोलता। ज्ञानी अपने अकेले में . तो बोलता ही नहीं। अपने अकेले में तो वह शून्य मंदिर की भांति होता है, जहां गहन सन्नाटा है, जहां निबिड़ मौन है, जहां विचार की एक तरंग भी नहीं आती। झील बिलकुल बिलकुल शांत है, जहां एक शब्द नहीं उठता, एक ध्वनि नहीं उठती। अपने अकेले में तो बोलना बिलकुल निष्प्रयोजन है। तो ज्ञानी चुप है अपने एकांत में। और जब वह दूसरे से भी बोलता है तब भी उसका बोलना रेचन नहीं है। बोलना उसकी बीमारी नहीं है। चुप होने में वह कुशल है। बोलना उसकी आवश्यकता नहीं है। वह अगर दो-चार साल न बोले तो कोई परेशानी नहीं होगी। वह वैसा ही होगा जैसा बोलता था तब था। शायद बोलने में थोड़ी परेशानी हो, मौन में उसे कोई परेशानी न होगी। बोलने में परेशानी होती है। क्योंकि उसे उन सत्यों के लिए शब्द खोजने पड़ते हैं, जिनके लिए कोई शब्द नहीं। उसे उन अनुभूतियों को बांधना पड़ता है रूप में, आकार में, जो निराकार की हैं। उसकी कठिनता बड़ी गहन है। और सब कुछ करके भी उसे पता चलता है कि वह जो कहना चाहता था वह तो नहीं कह पाया। शब्दों का कितना ही मालिक हो वह, कितना ही धनी हो शब्दों का, विचार उसके कितने ही साफ, निखरे हुए हों, तो भी जब वह सत्य को कहता है तो पाता है, सब धूमिल हो गया, बात कुछ बनी नहीं। इसीलिए तो बार-बार कहता है।
___तुम मुझसे पूछते हो कि मैं रोज तुमसे कहे चला जाता हूं! इसीलिए तो बार-बार कहता हूं। इस कोने से हार जाता है, उस कोने से कहता हूं। इस दिशा से नहीं सफल हो पाता, दूसरी दिशा खोज लेता हूं। और जब तक तुम न हार जाओगे तब तक मैं हारने वाला नहीं हूं। जहां से भी तुम राह दोगे वहीं से।
यह बात ही ऐसी है कि इसे कहा नहीं जा सकता, और यह बात ही ऐसी है कि इसे बिना कहे नहीं रहा जा सकता। नहीं कहा जा सकता, यह बात का स्वरूप ऐसा है। क्योंकि मौन में उपलब्ध होती है, परम शून्य में इसकी प्रतीति होती है। इसका साक्षात ही वहां होता है जहां एक भी विचार गवाही नहीं होता। फिर विचार से गवाही दिलवानी है जो वहां मौजूद न था। तो अड़चन तुम समझ सकते हो। फिर मन को लाना है बीच में, जिसके पार घटना घटी। तो मन बेचारा कहता है कि मैं करूं क्या, मुझे कुछ पता नहीं है। जिसको पता है वह बोल नहीं सकता है। और मन मौजूद न था, उसे बोलना है। और मन को फुसला-फुसला कर राजी करना है कि तू बोल दे। हर बार असफलता होनी है। इसलिए ज्ञानियों की समस्त ज्ञानियों की-धारणाओं में कितना ही भेद हो, उन्होंने कितने ही भिन्न ढंग से अपने विचार कहे हों, बड़े विपरीत उपाय खोजे हों, लेकिन हर ज्ञानी की आखिरी गवाही यही है कि कहा नहीं जा सकता कह-कह कर भी।
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