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________________ सत्य कह कर भी नहीं कहा जा सकता आदमी है, सज्जन है, ऐसा आदमी खोजना मुश्किल है, उससे वार्तालाप में बड़ा मजा आता है। वार्तालाप का तुम उसे मौका ही नहीं देते, तुम्हीं बोलते हो। लेकिन इसको तुम वार्तालाप कहते हो। तुम्हारा बोलना एक आंतरिक रोग है। तुम्हारे भीतर इतने विचार चल रहे हैं कि तुम उन्हें अगर बाहर न फेंक सके तो तुम पगला जाओगे। तुम दूसरे का उपयोग कर रहे हो एक कचरे की टोकरी की भांति। तुम उसमें डाल रहे हो। अगर यह दूसरा न होगा तो तुम अपने को ही दो हिस्सों में तोड़ लोगे और एक नाटक शुरू कर दोगे। तुमने पागलों को देखा है? बैठ कर वे बातें करते रहते हैं। तुम धीरे-धीरे करते हो, वे जरा जोर से करते हैं। तुम भीतर-भीतर करते हो, ओंठ के भीतर-भीतर करते हो। हालांकि तुम्हारे भी ओंठ थोड़े से कंपते हैं, और कोई अगर सूक्ष्म निरीक्षण करे तो पहचान सकता है कि तुम भीतर बात कर रहे हो कि नहीं। क्योंकि थोड़ा सा तुम्हारा ओंठ खबर देता है। पागल जोर से बोलने लगता है। पागल और तुममें सिर्फ मात्रा का भेद है। तुम निन्यानबे डिग्री हो, वह एक सौ एक डिग्री, बस। वह सौ की सीमा पार कर गया। अब उसने फिक्र छोड़ दी दुनिया की। अब वह अपने भीतर के जगत में ही पूरा रहता है। अब उसके मित्र, संगी, साथी, प्रेमी, प्रेयसी, दुश्मन, सब उसके भीतर ही हैं। अब वह उनको खुद ही बनाता है, दिल खोल कर बात करता है, खुद ही मिटाता है। पागल का अर्थ यह है : जिसने बाहर के वस्तुगत संसार को बिलकुल भुला दिया और जिसने एक भीतरी संसार खड़ा कर लिया जो उसका अपना ही निर्मित है। पागल बड़ा स्रष्टा है। इसलिए अक्सर तो कवि और दार्शनिक पागल हो जाते हैं। क्योंकि वे भी स्रष्टा हैं; शब्दों के, विचारों के, सिद्धांतों के, कल्पनाओं के जाल को बुनने में कुशल हैं। बुनते-बुनते एक घड़ी आ जाती है जब कि उन्हें अपना जाल ही सच मालूम होने लगता है। तब तुम फीके पड़ जाते हो, तुम बड़े दूर मालूम पड़ते हो। तुम झूठे लगने लगते हो, तुम असत्य हो जाते हो। उनके शब्दों का जाल इतना सघन हो जाता है, और उनके ही प्राणों से चूस-चूस कर वे शब्द और कल्पनाएं बड़ी यथार्थ हो जाती हैं। तब वह अपने यथार्थ में जीने लगता है। उसका अपना निजी यथार्थ है, प्राइवेट ट्रथ, उसका अपना सत्य है। वह किसी सार्वजनिक सत्य में विश्वास नहीं करता। तुम्हें न दिखाई पड़ रहा हो उसका मित्र, वह किससे बात कर रहा है, उसे दिखाई पड़ रहा है। तुमसे प्रयोजन भी नहीं है। तुम्हें नहीं दिखाई पड़ रहा है तो तुम कहीं भूल में हो। उसने अपना निजी सत्य बना लिया है। इस बात को ठीक से समझ लो। सत्य तो सार्वभौमिक है, कभी निजी नहीं। और जब भी तुम्हें ऐसी भ्रांति हो कि निजी है तभी समझ लेना कि पागलपन के करीब हो। निजी तो सपने होते हैं। सत्य तो सार्वभौम है, युनिवर्सल है। सत्य तो सभी का है। सपने भर निजी होते हैं। . ___इसलिए तुम्हारे सपने में दूसरे का कोई हाथ नहीं है। तुम्हारा सपना बस बिलकुल तुम्हारा अपना है। तुम दूसरे को अपना सपना दिखा भी नहीं सकते। तुम अपने प्रियतम को भी, अपनी पत्नी को, अपने पति को, अपने निकटतम आत्मीय मित्र को भी अपने सपने में निमंत्रित नहीं कर सकते कि आना आज रात, आज एक बड़ा सुंदर सपना देखने जा रहा हूं। तुम भी देख लेना। मैं बांटना चाहूंगा; ऐसा सुंदर है, अकेले लूटता हूं तो अपराधी लगता हूं। नहीं, तुम किसी को निमंत्रित न कर सकोगे। किसी का उपाय नहीं है। सपना बिलकुल निजी है। पागल का क्या लक्षण है? उसका सारा संसार निजी है। उसने सारे संसार को सपने जैसा कर लिया। अब वह खुली आंखों से सपना देख रहा है। मजे से बात करता है, जो चाहे बात करता है। चाहे अपने को सम्राट मान ले, क्योंकि उसके सपने के जो चाकर हैं वे फौरन गुलाम बनने को तैयार हैं। उसका ही सपना है, कोई बाधा नहीं है। तो पागल अपने को सम्राट समझ लेता है। भिखमंगा हो तो भी तुम उसे समझा नहीं सकते कि तुम भिखमंगे हो, कैसे तुमने सम्राट समझ लिया! वह कोई न कोई रास्ता निकाल लेगा अपने को समझाने का। 181
SR No.002375
Book TitleTao Upnishad Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1995
Total Pages440
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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