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________________ ताओ उपनिषद भाग ५ जो जान लेता है वह नहीं बोलता, इसका अर्थ है कि वह विचार नहीं करता। जब वह अकेला है तो निश्चित ही बिलकुल अकेला है। उसका एकांत परिशुद्ध एकांत है। उस एकांत में कोई भी नहीं है; वही है। शब्द भी नहीं है; वहां परम मौन है। जब दूसरे के साथ है तो जरूरत हो तो बोलता है। जब अपने साथ है तो बोलना तो बिलकुल ही गैर-जरूरी है। अपने साथ तो बोलने की कभी कोई जरूरत नहीं पड़ती। अपने साथ क्या बोलना है? कौन बोलेगा? कौन सुनेगा? वहां तो द्वैत नहीं है, वहां तो तुम अकेले हो। लेकिन तुमने वहां भी द्वैत निर्मित कर लिया है। वहां भी तुम बंटे हो, खंड-खंड हो। तुम अपने भीतर बोलते हो, वह बताता है कि तुम खंडित हो, टूटे हुए हो। तुम एक नहीं हो, तुम अनेक हो। जानने वाला एक हो जाता है। उसके भीतर कोई अनेकता नहीं है। वह किससे बोलेगा? उसके भीतर परम मौन है। उसका एकांत भरपूर है। उसके एकांत में रत्ती भर भी जगह नहीं है किसी और के लिए। और वह अपने भीतर एक है, इसलिए अपने को तोड़ नहीं सकता दो में कि बोले और सुने। खुद ही बोले, खुद ही सुने, खुद ही जवाब दे; ऐसे खंड उसके भीतर नहीं हैं। मौन उसकी सहज स्थिति है, जब वह अकेला है। जब वह दूसरे के साथ है तब जरूरत हो तो बोलता है। तब भी शर्त खयाल रखना, जरूरत हो तब बोलता है। अन्यथा वह दूसरे के साथ भी चुप होता है। तुम दूसरे के साथ भी गैर-जरूरत बोलते हो। ऐसा लगता है, बोलना ही तुम्हारी जरूरत है। और कोई जरूरत के कारण तुम नहीं बोलते हो, बोलना तुम्हारी बेचैनी है। बोलना तुम्हारी कैथार्सिस, रेचन है। तुम बोलते हो तो व्यस्त मालूम होते हो। तुम बोलने के लिए बोलते हो। तुम कुछ कहने के लिए नहीं बोलते हो। तुम बस बोलते हो, ताकि बोलने से दूसरे से संबंध जुड़ा रहे, और तुम अकेले न छूट जाओ। क्योंकि दूसरे से संबंध जुड़े रहने का एक ही ढंग है: बोलना। अगर दूसरा आदमी मौजूद हो और तुम न बोलो तो तुम दूसरे की मौजूदगी में भी अकेले हो जाओगे। इस अकेलेपन से बचने के लिए तुम बोलते हो। इसलिए तो तुम अकेले में भी बोलते हो। क्योंकि वहां भी अकेलेपन से बचने का एक ही उपाय है कि तुम बोले चले जाओ। अपने को ही दो हिस्सों में कर लो। एक नाटक चलाओ। खुद ही बोलो, खुद ही सुनो। वहां अभिनेता भी तुम्ही हो, वहां दिग्दर्शक भी तुम्ही हो, वहां कथा-लेखक भी तुम्ही हो, वहां दर्शक भी तुम्ही हो। वहां पूरी कहानी के पात्र, निर्माता, देखने वाले, सभी तुम्ही हो। तुम्हारा अंतस्तल एक ड्रामा बन जाता है, एक आंतरिक नाट्य बन जाता है। और तब तुम अकेले नहीं मालूम होते। तब तुमने एक झूठ पैदा कर लिया। उस झूठ के कारण तुम अपने से बच जाते हो। तुम्हारा बोलना अपने से बचने का एक उपाय है। तुम्हारे बोलने में कोई सार्थकता नहीं है। तुम्हारा बोलना एक रुग्ण प्रतीक है कि तुम चुप नहीं हो सकते इसलिए बोलते हो। बोलना किसी कारण से नहीं है। इसीलिए तो तुम्हारे बोलने से कुछ सार नहीं निकलता; दूसरा सिर्फ ऊबता है, परेशान होता है। लेकिन तुम कहोगे कि फिर उसे सुनने की क्या जरूरत है अगर वह ऊबता है? ऊबना भी बेहतर है, परेशान होना भी बेहतर है; अकेले होना उसको भी मुश्किल है। वह सुनता है। फिर सुनने में भी उसका भीतरी कारण यह है कि कभी तो तुम चुप होओगे और उसको भी बोलने का मौका दोगे। वह एक साझेदारी है, वह एक पारस्परिक सहयोग है एक-दूसरे के रेचन के लिए। इसलिए तो जो आदमी तुम्हें बोलने का मौका न दे उस पर तुम बहुत नाराज हो जाते हो; तुम कहते हो कि बहुत बोर है, बड़ा उबाने वाला है। उबाने वाला का मतलब क्या है? उबाने वाले का इतना ही मतलब है कि तुम्हें वह मौका नहीं देता। तुम भी उसे उबा लो उतना जितना वह तुम्हें उबाता है, सौदा पूरा हो गया, निबटारा हो गया। फिर तुम उस पर नाराज नहीं हो। और जो आदमी तुम्हारी चुपचाप सुनता है, और जितना तुम चाहो उसे उबाना तुम्हें उबाने देता है, तुम कहते हो, बड़ा गजब का आदमी है, बड़ा भला 1801
SR No.002375
Book TitleTao Upnishad Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1995
Total Pages440
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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