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आत्म-ज्ञान ही सच्चा ज्ञान ह
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शिक्षक सिखाता है, गुरु भुलाता है। शिक्षक तुम्हारी खोपड़ी पर लिखता है, गुरु साफ करता है। शिक्षक तुम्हारी स्मृति को भरता है, गुरु तुम्हारी स्मृति को शून्य करता है, रिक्त करता है।
अगर मेरे पास तुम सीखने आए हो तो गलत आ गए। अगर मेरे पास भूलने आए हो, अगर सीख-सीख कर थक गए हो इसलिए आए हो, अगर सीख-सीख कर कुछ भी नहीं पाया इसलिए आए हो, तो तुम ठीक आदमी के पास आ गए। तो फिर तुम्हारा मन कितना भी भागने को कहे, भागना मत।
मन कहेगा कि भाग जाओ, क्योंकि यह आदमी मिटाए डालता है। कितनी मुसीबत से सीखा था ! कितनी कठिनाई से संस्कृत पढ़ी! कितनी रातें जागे ! कितना मुश्किल से कंठस्थ किया वेदों को ! और यह आदमी मिटाए डालता है, भाग जाओ। लेकिन तब तुम मन की इस उत्तेजना से बचना और रुके रहना। क्योंकि जिन्होंने भी कुछ पाया है— पाने योग्य कुछ पाया है— उन्होंने भूल कर पाया है।
ये शब्द भी मैं उपयोग कर रहा हूं, और तुम्हें बड़ी अड़चन भी होती होगी कि मैं शब्द के खिलाफ हूं फिर शब्द क्यों बोले चला जाता हूं! और मैं कहता हूं सिखाया नहीं जा सकता, और रोज तुमसे इस तरह बात करता हूं जैसे तुम्हें कुछ सिखा रहा हूं! इन शब्दों का उपयोग मैं वैसे ही कर रहा हूं जैसे कि तुम्हारे पैर में कांटा लग जाए तो तुम क्या करते हो? तुम दूसरा कांटा खोजते हो, दूसरे कांटे से तुम पहले कांटे को निकाल लेते हो। मैं शब्द तुम्हारे भीतर पहुंचा रहा हूं, इनसे तुम्हारी आत्मा न बदलेगी; ये शब्द कांटों की तरह हैं, जो तुम्हारे भीतर चुभे कांटों के शब्दों को खींच ला सकते हैं। बस इतना ही हो सकता है।
और ध्यान रखना, जब तुम पहले कांटे को निकाल लेते हो दूसरे कांटे से तो दूसरे कांटे को सम्हाल कर नहीं रखते, उसकी कोई पूजा नहीं करते हो— कि तेरी बड़ी कृपा, कि तेरा बड़ा अनुग्रह, कि तेरे बिना पहला कांटा न निकलता। तुम ऐसा नहीं करते हो कि घाव में दूसरे कांटे को रख लेते हो कि तुझे कैसे अलग करें, अब तो तू प्राणों का प्राण है। नहीं, तुम दोनों को एक साथ ही फेंक देते हो। कांटे तो दोनों एक जैसे हैं। जो गड़ा था वह और जिसने निकाला वह उन दोनों में कोई भी फर्क नहीं है।
जिन शब्दों को मैं निकाल रहा हूं और जिन शब्दों से निकाल रहा हूं, उन दोनों में कोई फर्क नहीं है। तुम मेरे शब्दों को पूजना मत। तुम मेरे शब्दों को सम्हाल कर मत रख लेना। क्योंकि यह तो बड़ी भूल हो गई। एक कांटे निकले, दूसरे से उलझ गए। एक वेद से बचे तो दूसरे वेद में पड़ गए। जब तुम्हारे भीतर के शब्द निकल जाएं तो तुम इन्हें भी फेंक देना; दोनों को साथ ही विदा कर देना ।
तुम्हें खाली करना प्रयोजन है। तुम्हें शून्य बनाना लक्ष्य है। अब तुम इन शब्दों को सुनो।
लाओत्से से बड़ा ज्ञानी नहीं हुआ है। इसलिए लाओत्से की बात को बहुत समझ समझ कर, जितने गहरे तक इस कांटे को तुम ले जा सको, ले जाना। क्योंकि यह तुम्हारे भीतर चुभे गहरे से गहरे कांटे को निकालने में समर्थ है। लाओत्से बड़ा कुशल है । इसकी कुशलता बड़ी अनूठी है। अनूठी ऐसी है कि इसकी कुशलता कोई क्रिया की कुशलता नहीं है; इसकी कुशलता अक्रिया की है। वह हम आगे समझने की कोशिश करेंगे।
'ज्ञान का विद्यार्थी दिन ब दिन सीखने का आयोजन करता है; ताओ का विद्यार्थी दिन ब दिन खोने का। दि स्टूडेंट ऑफ नालेज एम्स एट लर्निंग डे बाइ डे; एंड दि स्टूडेंट ऑफ ताओ एम्स एट लूजिंग डे बाइ डे ।'
कह रहा है लाओत्से, दो तरह के विद्यार्थी हैं। एक है विद्यार्थी, वह ज्ञान का विद्यार्थी है, वह दिन ब दिन सीखने की कोशिश करता है । रोज-रोज ज्ञान को बढ़ाता है। उसके लिए ज्ञान एक संग्रह है। वह अपने ज्ञान में जोड़ता जाता है; उसकी संपत्ति बढ़ती जाती है। वह रोज-रोज ज्यादा से ज्यादा जानने लगता है। जब वह मरेगा तब उसके पास बड़े ज्ञान का भंडार होगा।