________________
ताओ उपनिषद भाग ५
और तुम किसी चीज को उसकी अति पर मत ले जाना। क्योंकि अति पर जाकर चीजें बुढ़ा जाती हैं। किसी भी चीज को अति पर मत ले जाना। भोग को भी नहीं, त्याग को भी नहीं। क्योंकि जब कोई चीज अति हो जाती है तभी तुम्हारे जीवन का संतुलन खो जाता है। जहां संतुलन खो जाता है वहीं तुम्हारी जीवन-ऊर्जा मर गई। तब तुम बहते नहीं। तब तुम बर्फ की तरह हो जाते हो, धार की तरह नहीं नदी की।
'चीजें अपने यौवन पर पहुंच कर बुढ़ाती हैं।' जब तुम किसी चीज को उसके पूरे पर खींच देते हो, बस बात वहीं मर जाती है। तो करो क्या?
लाओत्से कहता है, किसी चीज को अति पर मत ले जाओ; समय रहते रुक जाओ। मध्य में ठहर जाओ। न इस तरफ, न उस तरफ। वहीं साक्षी-भाव का उदय होता है, मध्य में।
अगर चौदह वर्ष के बच्चे को ठीक से शिक्षित किया जा सके तो हम उसे तरकीब बताएंगे कि वह जीवन में उतरे, लेकिन अति पर न जाए; मध्य में रहे। जीवन के अनुभव से गुजरे, लेकिन अति पर न जाए। क्योंकि एक अति दूसरे अति पर ले जाती है। अगर वह भोग में बहुत उतर गया तो त्यागी हो जाएगा कभी न कभी। और दोनों गलत हैं। अगर दुर्जन हुआ तो कभी न कभी सज्जन हो जाएगा। अगर सज्जन हुआ तो कभी न कभी दुर्जन हो जाएगा। क्योंकि एक अति पर पहुंच कर चीजें बुढ़ा जाती हैं। फिर वहां से लौटना पड़ता है दूसरी अति पर। क्योंकि एक अति पर जब तुम जाते हो तो तुम्हें दिखता है कि जीवन दूसरी अति पर है।
भोगी सोचता है, त्यागी बड़े आनंद में है। तुम्हें त्यागी का पता नहीं। त्यागी सोचता है, भोगी सारी दुनिया का मजा ले रहा है। हम मुफ्त मारे गए। हम न मालूम किस बात में फंस गए। मैं दोनों को जानता हूं। भोगी दुखी है, भोग की चिंताएं हैं। त्यागी दुखी है, क्योंकि त्याग की चिंताएं हैं। भोगी वासना के कारण दुखी है, क्योंकि वह उलझा रही है। त्यागी वासना को दबाने के कारण दुखी है, क्योंकि वह मवाद की तरह भीतर बढ़ रही है।
अगर व्यक्ति ठीक, सम्यक राह पकड़े तो इतना भोग में जाने की जरूरत नहीं है कि त्याग पैदा हो जाए। मध्य में ठहर जाना जरूरी है कि भोग से साक्षी-भाव आ जाए। बस इतना काफी है। वहीं रुक जाए। ऐसा व्यक्ति कभी नहीं, बुढ़ाता। ऐसे व्यक्ति के भीतर की जीवन-धार सदा युवा बनी रहती है। ऐसे व्यक्ति के भीतर जीवन सदा अपनी उत्कृष्टता में, संतुलन में, गरिमा में ठहरा रहता है। ऐसा व्यक्ति कभी चुकता नहीं। ऐसा व्यक्ति सदा ही भरा रहता है।
'क्योंकि चीजें अपने यौवन पर पहुंच कर बुढ़ाती हैं; वह आक्रामक दावेदारी ताओ के खिलाफ है।'
और जब भी तुम अति पर गए तुम स्वभाव के विपरीत चले गए। क्योंकि स्वभाव मध्य में है, संतुलन में है, संयम में है। न भोग, न त्याग; दोनों के मध्य में है, साक्षी-भाव में है।
'और जो ताओ के खिलाफ है वह युवापन में ही नष्ट हो जाता है।'
और जो व्यक्ति भी स्वभाव के विपरीत गया वह मरने के पहले मर जाता है। उसकी मौत तो बाद में आती है, वह मर जाता है तीस साल में। सत्तर साल में मौत आती है, चालीस साल वह मुर्दे की तरह जीता है। उसका जीवन एक बोझ हो जाता है। वह लाश की तरह अपने को ढोता है। वह एक कब्र हो जाता है। जीसस ने बहुत जगह कहा है कि तुम सफेद पुती हुई कब्रों की भांति हो। ऊपर सफेद-सफेद, भीतर सिवाय हड्डियों के और कुछ भी नहीं।
तुम मुर्दे हो। तुम दिखाई पड़ते हो कि जी रहे हो। क्या तुम जी रहे हो? तुम्हारे जीने की कहां है गरिमा? कहां है गौरव? तुम्हारे जीवन का कहां है आनंद? कहां है नृत्य? तुम्हारे जीवन का गीत कहां है? चिंताओं को तुम जीवन कहते हो? संताप को तुम जीवन कहते हो? हताशा को तुम जीवन कहते हो? तो फिर मृत्यु क्या है?
तुम एक अर्थ में जी नहीं रहे हो, मरे-मरे हो। और तुम जीवन को ही नहीं जान पा रहे हो तो तुम मृत्यु को कैसे जान पाओगे? तुम वंचित हुए जा रहे हो।
174