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________________ शिशुवत चरित्र ताओ का लक्ष्य है नहीं हूं। आकांक्षा, वासना, अहंकार साधुता में और गहन हो जाता है। जयप्रकाश साधु की तरह जीए हैं; उनका अहंकार और भी सूक्ष्म है। और वे और भी खतरे में ले जा सकते हैं इस मुल्क को, क्योंकि अहंकार साधु का है। अकड़ इस बात की है कि मैंने पदों पर लात मारी है। और बुढ़ापे में-जीवन भर पदों को लात मारी, वह बाहर-बाहर से मारी है-इसलिए अब बुढ़ापे में जब जीवन चुकता जा रहा है तो पद की प्रगाढ़ आकांक्षा भीतर पैदा हो गई है। ऐसा होगा ही। अगर कोई आदमी ब्रह्मचर्य को ऊपर-ऊपर साधे तो मरते वक्त कामवासना इस बुरी तरह सताएगी कि वह पागल हो जाएगा। क्योंकि जीवन हाथ से जा रहा है, और सारी वासना इकट्ठी हो गई। कोई आदमी उपवास करता रहे तो मरते वक्त सिवाय भोजन की याद करने के और कोई चीज में नहीं मरेगा; भोजन ही करता हुआ मरेगा-मन में करेगा। अब जयप्रकाश जीवन भर पद को छोड़ते रहे कि पद छोड़ने से भी तो भारत में बड़ा आदर मिलता है। लेकिन धीरे-धीरे उन्हें ऐसा लगने लगा इन पीछे के दिनों में कि अब कोई फिक्र नहीं कर रहा है, और जीवन हाथ से चुका जा रहा है, तो अब पद की प्रगाढ़ आकांक्षा पैदा हो गई। जयप्रकाश को किसी को जाकर कहना चाहिए कि जय जय जयप्रकाश, गए राम भजन को, ओटन लगे कपास।। लेकिन वह होता है। वह होता है। अगर तुम क्रोध को ऊपर से दबाओगे तो भीतर क्रोध इकट्ठा होगा। और किसी न किसी दिन कपास ओटोगे। कामवासना दबाओगे, किसी न किसी दिन कपास ओटोगे। दबाना भूल कर मत। लेकिन इसका यह मतलब नहीं है कि प्रकट करना। तब तुम कहोगे, बड़ी अड़चन में डालते हो। न दबाने देते, न प्रकट करने देते, तो फिर हम करें क्या? वहीं सारी खूबी है। तुम साक्षी होना। कर्ता मत बनना, तुम सिर्फ देखना। जब क्रोध है तो सिर्फ देखना। करने की जरूरत क्या है? दबाने की भी कोई जरूरत नहीं है। तुम आंख बंद करके क्रोध को देखना। बड़े प्रेम से देखना; शांति से देखना। यह क्रोध उठ रहा है, यह धुआं उठ रहा है, यह चारों तरफ फैल रहा है, यह हत्या करना चाहता है, यह उपद्रव करना चाहता है, यह पद पाना चाहता है, यह यह करना चाहता है-इसको देखना। तुम चुपचाप अपने भीतर छिप कर अपनी गुफा में बैठ जाना और वहीं से टकटकी लगा कर देखना। यह सब ट्रैफिक गुजर रहा है क्रोध का। बड़ा बनजारा है क्रोध का, तुम गुजरने देना। तुम न पक्ष में, न विपक्ष में; तुम निष्पक्ष हो जाना। उस निष्पक्षता से ही, उस सिर्फ देखने मात्र से तुम पाओगे, यह बनजारा धीरे-धीरे, यह लंबा काफिला धीरे-धीरे छोटा होने लगा, तुमसे दूर होने लगा। एक ऐसी घड़ी आती है जब न तो दबा कर और न करके तुम अचानक मुक्त हो जाते हो। सिर्फ देख कर, दर्शन से, द्रष्टा-भाव से, साक्षी से। वहीं तुम्हारा नया जन्म है, जब तुम साक्षी-भाव से मुक्त हो जाते हो।। अन्यथा तुम कुछ भी करो, क्रोध करो तो मुश्किल में पड़ोगे। क्योंकि क्रोध करने से क्रोध की श्रृंखला पैदा होती है; अभ्यास घना होता है। क्रोध को दबाओ तो मुश्किल में पड़ोगे। क्योंकि दबाने से क्रोध भीतर इकट्ठा होता है, और उसका नासूर बड़ा होता जाता है। सज्जन बनने की कोशिश मत करना। दुर्जन होने में कोई सार नहीं है। सज्जन होने में भी कोई सार नहीं है। तुम संत होने की कोशिश करना। उससे कम पर राजी मत होना।। और संत, दुर्जन और सज्जन दोनों के पार है। संत फिर बालक हुआ। भेद मिट गया। अब न कोई दुर्जन, न कोई सज्जन। अब न कुछ अच्छा, न कुछ बुरा। अब सिर्फ साक्षी-भाव ही एकमात्र संगीत रह गया। 'और मनोवेगों को मन की राह देना आक्रामक है।' संशोधन अशुभ। मनोवेगों को राह देना आक्रामक। 'और चीजें अपने यौवन पर पहुंच कर बुढ़ाती हैं। वह आक्रामक दावेदारी ताओ के खिलाफ है।' 173
SR No.002375
Book TitleTao Upnishad Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1995
Total Pages440
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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