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शिशुवत चरित्र ताओ का लक्ष्य हैं
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बयालीसवें वर्ष के करीब धर्म का चिंतन शुरू होता है। देख ली जिंदगी, समझ लिया सब; कुछ सार न पाया। यह अवस्था फिर वैसी है जैसी सात साल में थी। अब एक नया उपक्रम शुरू हो रहा है। उनचासवें वर्ष में जोड़ का क्षण आता है, जैसा चौदह वर्ष में आया था। अगर चौदह वर्ष की घटना ठीक से घटी हो तो उनचासवें वर्ष की घटना सुगमता से घट जाती है। जो टूटा था वह फिर जुड़ जाता है।
इसलिए हमने पचास वर्ष में वानप्रस्थ की अवस्था मानी थी कि पचास वर्ष में आदमी वानप्रस्थ हो जाए। वानप्रस्थ का अर्थ है : मुंह जंगल की तरफ हो जाए। जंगल न जाए, लेकिन मुंह जंगल की तरफ हो जाए। पीठ हो जाए संसार की तरफ गया, वह वक्त गया । सपना, दुख-सपना, जो भी था, बीत गया। उसे देख लिया, जान लिया। अब फिर भीतर जुड़ गए। यह जो भीतर का जुड़ना है यह फिर एक नए ब्रह्मचर्य का उदय है। इस क्षण में फिर आदमी बालक जैसा हो जाना चाहिए। न हो पाए तो जिंदगी में कहीं कोई भूल हो गई।
'यद्यपि वह नर और नारी के मिलन से अनभिज्ञ है, तो भी उसके अंग पूरे-पूरे हैं।'
पचास वर्ष में फिर नर और नारी का मिलन व्यर्थ हो जाएगा। अब भीतर के नर और नारी का फिर मिलन होगा। वह फिर शिशुवत हो जाएगा। अब फिर उसके अंग पूरे-पूरे हो जाएंगे। और जब कभी यह घटना घटती है तो इससे ज्यादा सुंदर आदमी फिर न पा सकोगे। इसका बुढ़ापा बड़ा सौंदर्य से भरा हुआ होगा ।
आमतौर से बुढ़ापा बड़ी दरिद्रता से भरा हुआ होता है। क्योंकि वर्तुल फिर जुड़ ही नहीं पाता। टूटा कैसे, उसका पता नहीं है, तो जोड़ कैसे पाओगे? जैसे टूटा है उसके ही विपरीत चल कर तो जुड़ना होगा।
'जिसका अर्थ हुआ कि उसका बल अक्षुण्ण है। दिन भर चीखते रहने पर भी उसकी आवाज भर्राती नहीं ।' बच्चा दिन भर रोता है, चिल्लाता है, चीखता है, आवाज नहीं भर्राती । क्योंकि भीतर एक अहर्निश नाद बज रहा है; भीतर की स्त्री और पुरुष मिल रहे हैं। अधूरापन नहीं है।
'जिसका अर्थ हुआ कि उसकी स्वाभाविक लयबद्धता पूर्ण है।'
लयबद्धता का क्या अर्थ है ? लयबद्धता का अर्थ है: तुम पूरे हो, कुछ कमी नहीं है। तुम्हारी प्रेयसी, तुम्हारा प्रेमी तुम्हारे भीतर है। मैं तू दोनों भीतर हैं, इकट्ठे हैं। उन दोनों के मिलन से जो संगीत पैदा होता है वही लयबद्धता है। संभोग में उसकी ही तो क्षण भर को झलक मिलती है। वह झलक क्षण भर की ही होगी। क्योंकि बाहर की स्त्री से तुम कितनी देर मिले रहोगे ? क्षण भर को भी मिलना हो जाए तो बहुत है । पराए से तो तुम दूर हो ही; एक क्षण को भी पास आना हो जाए तो काफी है। समाधि में वही सतत मिलता है, संभोग में जो क्षण भर को मिलता है। समाधि का अर्थ है : अब भीतर संभोग हो गया, अब भीतर लयबद्धता बजने लगी; भीतर का तार पूरा जुड़ गया । अब कोई कमी नहीं है।
संत है पूरा अस्तित्व अपने में। कोई जरूरत न रही; कोई कमी न रही। तभी तो संत के आस-पास एक तृप्ति की वर्षा होती रहती है। तुम उसके पास भी बैठोगे, तुम उसे देखोगे भी, तो भी तुम पाओगे कि कुछ बरस रहा है, कुछ अहर्निश बरस रहा है। इसलिए तो हिंदुओं ने, जो कि पुराने से पुराने धर्म के तलाशी हैं, दर्शन को इतना मूल्य दिया है। पश्चिम के लोग समझ ही नहीं पाते कि दर्शन का क्या मतलब? पश्चिम से कोई आता है तो वह पूछने को आता है, संत को देखने को नहीं। देखने से क्या लेना-देना है ? देख तो तस्वीर ही लेते हैं। यहां आने की क्या जरूरत थी ! सवाल लेकर आता है। पश्चिम से जब कोई आता है तो सवाल लेकर आता है, पूछने आता है, विचार करने आता है। पूरब ने जान लिया राज। पूरब कहता है : संत को देख लिया, आंखें भर गईं; बस बहुत है। पूछना क्या है? और जो देखने से न दिखा वह पूछने से कैसे दिखेगा? सवाल लेकर थोड़े ही संत के पास जाना है। संत के पास तो खुला हुआ मन लेकर जाना है, ताकि दर्शन हो जाए।