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ताओ उपनिषद भाग ५
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है लड़कों की, भर्रायी हुई हो जाती है। वह भर्रायी हुई आवाज भीतर के संगीत के टूट जाने के कारण है। लड़कियां शरमाई - शरमाई हो जाती हैं, अपने को छुपाई-छुपाई रखना चाहती हैं। कुछ शरीर में हो रहा है जो समझ के बाहर हो रहा है। लड़कियां बड़ी पीड़ित होती हैं जब उनका मासिक धर्म शुरू होता है। क्या हो रहा है, क्यों हो रहा है, कोई उत्तर नहीं है आस-पास । और अपने ही सहारे अंधेरे में रास्ता खोजना है।
इन्हीं क्षणों में भटकाव हो जाता है। समाज ऐसा चाहिए जो इस क्षण में बड़ा सहयोग दे। मां-बाप, शिक्षक । क्योंकि इस समय से ज्यादा फिर और कोई महत्वपूर्ण क्षण कभी नहीं आएगा। इस क्षण में जो चूक हो गई तो पूरे जीवन भटकाव होगा। और बड़े दुख की बात यह है कि इस क्षण में गलत लोग ही सहायता देने आते हैं, ठीक लोग नहीं । तुम किसी संत के पास नहीं जा सकते पूछने; जाना चाहिए संत के पास पूछने । मुहल्ले-पड़ोस के उपद्रवी लफंगे, उनसे तुम पूछोगे, उनका सत्संग करोगे। क्योंकि वे ही इन बातों को बता सकते हैं। गलत का शिक्षण गलत लोगों से होता है।
मैं अपने संन्यासियों को कहता हूं कि तुम अपनी सारी चिंतना को, सारी चिंता को मेरे पास ले आओ। तो कभी-कभी कोई बुजुर्ग बैठा होता है मेरे पास तो उसे बड़ी बेचैनी होती है। एक सज्जन मुझसे कहने लगे कि यह क्या मामला है! आपको तो सिर्फ ध्यान के संबंध में ही इन्हें समझाना चाहिए। परमात्मा के संबंध में । यह लड़का अपनी कामवासना की बात कर रहा है। इसको आप क्यों समझा रहे हैं? इससे आपको क्या लेना-देना?
अगर इसे ठीक लोग न बताएंगे तो इसे गलत लोग बताएंगे। यह सीखेगा तो ही । अगर इसके लिए कोई सम्यक मार्ग न होगा जानने का तो भी यह जानेगा - गलत लोगों से जानेगा। और सारे लोग जीवन की बड़ी महत्वपूर्ण बातें गलत लोगों से जानते हैं। फिर जीवन भर अड़चन बनी रहती है। और जो संत हैं वे निंदा किए जा रहे हैं। इसलिए वे सिखाएंगे कैसे? साधु हैं, वे गाली दिए जा रहे हैं। इसलिए वहां तो सीखने का कोई उपाय नहीं है। असाधु तैयार हैं सिखाने को । लेकिन उनसे जो भी सीखा जाएगा वह गंदे कुएं का पानी है। उसको पीना जहरीला है।
यह समाज इतना विकृत है इसीलिए कि हम चौदह साल की उम्र में, जो बहुत महत्वपूर्ण क्षण है, क्योंकि वहीं बच्चा टूटता है। अगर यह क्षण चूक गया तो जोड़ने का क्षण बहुत मुश्किल हो जाएगा। क्योंकि कैसे टूटता है इस पर ही निर्भर होगा कैसे जुड़ेगा । अगर बहुत व्यवस्था से टूट हो सके, होशपूर्वक उसके भीतर के स्त्री और पुरुष अलग हो सकें, उसकी जानकारी में यह सब हो सके कि क्या हो रहा है, तो जिस दिन उसे इन दोनों को मिलाना होगा उसके पास कुंजी होगी। क्योंकि जिस तरह वह अलग हुआ था उसी तरह मिलने का इंतजाम कर लेगा ।
इसलिए दो अड़चन के क्षण हैं: एक चौदह वर्ष के करीब और एक उनचास वर्ष के करीब । चौदह वर्ष के करीब आदमी टूटता है और उनचासवें वर्ष के करीब फिर दूसरा क्षण आता है, पचास वर्ष के करीब, जहां जुड़ाव होना चाहिए। और हर सात वर्ष के बाद मंजिलें हैं। इसलिए पचास नहीं कह रहा हूं, उनचास ।
सात वर्ष बच्चा बालक है। सात वर्ष के बाद काम-ऊर्जा सघन होनी शुरू होती है। चौदहवें वर्ष में काम-ऊर्जा प्रकट होती है। इक्कीसवें वर्ष में काम-ऊर्जा अपनी पूरी चरम उत्कर्ष स्थिति में होती है। अट्ठाइसवें वर्ष में व्यवस्थित हो जाती है। वह जो ऊंचाई थी इक्कीस वर्ष की वह खो जाती है, और एक संतुलन आ जाता है। पैंतीसवें वर्ष में उतार शुरू हो जाता है; पैंतीसवें वर्ष में जवानी उतरने लगती है। घाटी शुरू हो गई। बयालीसवें वर्ष में चिंतन फिर शुरू होता है, जैसा सात वर्ष में शुरू हुआ था । इसलिए धर्म का आविर्भाव करीब-करीब लोगों के मन में बयालीसवें वर्ष के करीब होना शुरू होता है। थोड़ा हेर-फेर होता है, बाकी औसत ।
जुंग ने, पश्चिम के एक बहुत बड़े मनोवैज्ञानिक ने कहा है कि मैंने जितने मरीज देखे चालीसवें साल के बाद, उनकी बीमारी धार्मिक है। उनको धर्म चाहिए ।