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शिशुवत चनिन्न ताओ का लक्ष्य है
होता; तब तक वे दोनों एक ही जैसे होते हैं। क्योंकि दोनों के भीतर के स्त्री और पुरुष संयुक्त हैं। अभी वर्तुल पूरा है। अभी वर्तुल कहीं से टूटा नहीं है।
इसलिए तो बच्चे के अंग-अंग पूरे हैं। और बच्चा एक गहन ब्रह्मचर्य में जीता है। अभी वासना नहीं जगी। वासना के साथ ही भेद शुरू होगा। वासना जगेगी, तभी तो वह पुरुष और स्त्री बनेगा। और वासना के जगते ही भीतर का वर्तुल टूट जाएगा। भीतर की स्त्री से मिलन छूट जाएगा, भीतर के पुरुष से मिलन छूट जाएगा। फिर बाहर खोज शुरू होगी। जिससे भीतर हम टूट जाते हैं उसको हम बाहर खोजते हैं।
बच्चा काफी है। बच्चा एक तृप्त अवस्था है। उसकी सारी जीवन-ऊर्जा भीतर ही संयुक्त है। इसलिए तुम किसी बच्चे को कुरूप न पाओगे। सभी बच्चे सुंदर होते हैं। फिर क्या हो जाता है बाद में? यही सुंदर बच्चे बड़े कुरूप व्यक्तियों में परिवर्तित हो जाते हैं। फिर ऐसा सौंदर्य संतत्व को पुनः उपलब्ध होता है, अन्यथा नहीं उपलब्ध होता। जब फिर दुबारा भीतर की स्त्री और पुरुष मिल जाते हैं, तब फिर ब्रह्मचर्य आता है। तब कोई जरूरत नहीं रह जाती बाहर की खोज की। वही ब्रह्मचर्य का अर्थ है।
तो दो ब्रह्मचर्य हैं। एक बच्चे का ब्रह्मचर्य, क्योंकि वह भेद के पूर्व। और एक संत का ब्रह्मचर्य, क्योंकि वह भेद के बाद।
'यद्यपि वह नर और नारी के मिलन से अनभिज्ञ है...।'
उसे कोई पता नहीं कि नर और नारी का कोई मिलन होता है। वह अभी मिला ही हुआ है। अभी उसके भीतर सब पूरा है।
'तो भी उसके अंग-अंग पूरे हैं।' । अंग-अंग पूरे हैं, क्योंकि वह पूरा है। जब भीतर पूर्णता होती है तो रोएं-रोएं में पूर्णता होती है। 'जिसका अर्थ हुआ कि उसका बल अक्षुण्ण है।'
अभी उसका बल विभाजित नहीं हुआ; अभी उसका वर्तुल टूटेगा। चौदह वर्ष की उम्र में लड़की का मासिक धर्म शुरू होगा। वर्तुल टूट गया। लड़के की काम प्रौढ़ता होगी; चौदह वर्ष में वह योग्य हो गया, अब बच्चों को जन्म दे सकता है। उसका वर्तुल टूट गया। जब भीतर का वर्तुल टूट जाता है तो जिससे हमारा संबंध अब तक भीतर था उसको हम बाहर खोजते हैं; बेचैनी शुरू होती है।
इसलिए चौदह वर्ष की उम्र सबसे ज्यादा बेचैन उम्र है। सबसे ज्यादा बेचैन। समझ ही नहीं पड़ता कि क्या हो रहा.है! क्यों हो रहा है! चौदह वर्ष का लड़का और लड़की बड़ी संकट की अवस्था में होते हैं। जानते भी नहीं क्या हो रहा है। जो अतीत था वह खो गया; जो सुख था, जो शांति थी, वह खो गई। एक बेचैनी है; एक अनजानी प्यास है। किस पानी से बुझेगी, इसका भी कोई पता नहीं है। बुझेगी, इसका भी कोई पता नहीं है। कैसे बुझेगी, इसका भी कोई पता नहीं है। सब स्वप्न वासना से भर जाते हैं। सारा चित्त वासना से भर जाता है। किसी से कह भी नहीं सकता; कोई उसकी सुनने को भी नहीं है। किसी के साथ अपने भीतर की अवस्था को बता भी नहीं सकता। बताना भी चाहे तो उसके पास शब्द भी नहीं हैं अभी कि क्या हो रहा है। बस सिर्फ बेचैन है। कुछ खोया-खोया है।
तुम चौदह वर्ष के लड़के-लड़कियों को देखो, उनकी आंखों में तुम्हें पता लगेगा, कुछ खोया-खोया है। कुछ था जो खो गया है। और कुछ मिलने की तलाश है जिसका पता नहीं, वह कहां मिलेगा। वर्तुल टूट गया है। भीतर की ऊर्जा अब खंडित हो गई है। इसलिए चौदह साल के लड़के और लड़कियां बहुत उत्तेजित अवस्था में होते हैं। और उनको सहना मां-बाप को भी मुश्किल होता है। वे जहां भी जाते हैं अपने साथ एक उत्तेजना का वातावरण ले जाते हैं। क्योंकि न तो वे अब बच्चे रहे और न अभी जवान हुए। एक बड़ी बेहूदी अवस्था है। उनकी आवाज कठोर हो जाती
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