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शिशुवत चरित्र ताओ का लक्ष्य है
झंझट में नहीं पड़ते। वे अपने को छोटा मानते हैं, झुक जाते हैं। झुक गए, तूफान तो निकल जाता है। बड़े वृक्षों को मिटा जाता है, छोटों को नया जीवन दे जाता है। फिर खड़े हो जाते हैं लहलहाते। तूफान में सिर्फ उनकी धूल झड़ जाती है। तूफान और कुछ नहीं कर पाता।
अब यह बड़ी हैरानी की बात है कि छोटे पौधे बच जाते हैं, बड़े वृक्ष नहीं बच पाते। नहीं, इसमें परमात्मा का कुछ हाथ नहीं है। छोटे वृक्ष की खूबी है उसका लोचपूर्ण होना। छोटे बच्चे लोचपूर्ण हैं। इसलिए तो दिन भर गिरते रहते हैं। तुम जरा दिन भर एक दिन बच्चे के साथ गिर कर देखो; फिर जिंदगी भर उठ न सकोगे।
पश्चिम में उन्होंने एक प्रयोग किया है, एक बहुत बड़े पहलवान को...। एक मनोवैज्ञानिक लाओत्से को पढ़ रहा था। तो उसे लगा कि इस पर प्रयोग करने जैसा है। तो हार्वर्ड युनिवर्सिटी में प्रयोग किया गया। एक बड़े से बड़े पहलवान को बुलाया गया, जिसका शरीर बड़ा शक्तिशाली है। और उसे एक काम दिया गया है कि आठ घंटे वह एक बच्चे का अनुकरण करे, बच्चा जो करे वही वह भी करे। बस कुछ और नहीं करना है, एक आठ घंटे बच्चा बैठे तो बैठ जाए, बच्चा खड़ा हो तो खड़ा हो जाए, बच्चा घिसटे तो घिसटे, बच्चा लोटे तो लोटे, बच्चा उचके तो उचके, रोए तो रोए, चिल्लाए तो चिल्लाए। जो भी बच्चा करे, बस उसका अनुकरण करता रहे।
वह पहलवान छह घंटे में चारों खाने चित्त हो गया। और बच्चे को बहुत मजा आया तो वह और ज्यादा करने लगा। जब कोई आदमी उसकी नकल कर रहा था तो उसने ऐसे-ऐसे काम किए कि वह पहलवान को उसने पस्त कर दिया। छह घंटे में वह पड़ गया। और उसने कहा कि मेरी हिम्मत अब आगे खींचने की नहीं, यह मार डालेगा। और बच्चा प्रसन्न है; उसे कुछ हुआ ही नहीं है। वह खेल समझ रहा है।
लाओत्से.ठीक है। क्योंकि बच्चे के लिए जीवन अभी खेल है। काम जिस दिन हुआ उसी दिन थकान शुरू हई। जिस दिन काम आया चित्त में उसी दिन थकान शुरू हुई। जब तक खेल है तब तक सब मौज है। खेल में कभी कोई थकता है?
मैं एक गांव में रहता था। एक वकील मेरे पास रहते थे। बड़े से बड़े वकील थे उस गांव के। बड़े थके-मांदे सांझ वे अदालत से लौटते। हाईकोर्ट का बड़ा कारोबार था उनका। और फिर वे आते ही से कि बहुत थक गया हूं, अब जरा टेनिस खेलने जा रहा हूं। मैंने उनसे पूछा कि तुम कभी सोचो भी तो कि थक कर आए हो और अब टेनिस खेलने जाओगे तो और थकोगे। उन्होंने कहा कि नहीं, कभी इस पर सोचा नहीं, क्योंकि टेनिस खेल है। तो फिर, मैंने कहा, तुम अदालत भी खेल की तरह क्यों नहीं जाते कि थको ही न? और जब बात ही साफ है, क्योंकि तुम इतना काम करके आए, अब टेनिस खेलने जा रहे हो तो शरीर तो थकेगा ही! पर वे कहते हैं, नहीं, टेनिस खेल कर घंटे भर बाद आता हूं, बिलकुल ताजा हो जाता हूं। तो फिर तुम इतनी सी बात के सूत्र को समझ क्यों नहीं ले रहे हो कि अदालत को भी खेल बना लो।
श्रम से कोई भी नहीं थकता, काम से थकता है। क्योंकि श्रम से थकता होता तो खेल से भी थकता। क्योंकि खेल भी श्रम है। काम से थकता है आदमी। और जिस काम को तुम प्रेम करते हो वह खेल हो जाता है। जिस काम को तुम प्रेम नहीं करते, वही काम है। अगर तुम खेल को भी प्रेम न करो, वह भी काम हो जाएगा। प्रोफेशनल खिलाड़ी होते हैं, वे थक जाते हैं। क्योंकि उनका धंधा है, एक घंटा खेलना है। यह काम है। इससे कमाई करनी है।
खेल और काम में एक ही फर्क है। खेल है क्षण में जीना। यहीं प्रारंभ है, यहीं अंत है। यही साधन है, यही साध्य है। काम का अर्थ है : यह साधन है, साध्य आगे है, फल में है। अगर कृष्ण की पूरी गीता का कोई सार है तो वह इतने से में है कि तुम जीवन को खेल बना लो, फल की आकांक्षा मत करो। फल की आकांक्षा से प्रत्येक चीज काम हो जाती है। खेल में कुछ फल थोड़े ही है। खेलना ही फल है।
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