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शिशुवत चरित्र ताओ का लक्ष्य हुँ
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फकीर ने कहा, चलो, थोड़ा गांव के बाहर चलें, वहां फर्क बताऊंगा। राजा साथ हो लिया; गांव के बाहर पहुंच गए। नदी आ गई जो गांव की सीमा बनाती थी। फकीर ने कहा कि उस तरफ चलें। पार हो गए नदी । राजा ने कहा, अब देर हुई जाती है, सूरज भी खूब चढ़ आया, अब आप बता दें। दूर जाने की क्या जरूरत है? अब यहां कोई भी नहीं है, वृक्ष के नीचे बैठ कर बता दें। उसने कहा कि थोड़ा और दोपहर तक वह सम्राट को चलाता रहा। आखिर सम्राट खड़ा हो गया। उसने कहा, अब बहुत हो गया । व्यर्थ चलाए जा रहे हैं। जो कहना है कह दें!
फकीर ने कहा, अब मैं वापस नहीं लौटूंगा। तुम मेरे साथ चलते हो ? सम्राट ने कहा, मैं कैसे साथ चल सकता हूं? राज्य है, महल है, व्यवस्था, काम-धाम, हजार उलझनें हैं। आपको क्या ? तो फकीर ने कहा, अब समझ सको तो समझ लेना। हम जाते हैं, तुम नहीं जा सकते हो; वहीं भेद है। हम महल में थे, महल हममें न था । तुम महल में हो और महल भी तुममें है। भेद बारीक है। समझ सको, समझ लेना ।
सम्राट रोने लगा, पैर पकड़ लिया, कहा कि मैं पहचान ही न पाया। और आप छह महीने वहां थे और मैं धीरे-धीरे आपको भूल ही गया। और मैं तो समझा कि आप भी भोगी हैं। वापस चलिए!
फकीर ने कहा, मुझे चलने में कोई हर्जा नहीं, लेकिन फिर वही गलती हो जाएगी। मेरी तरफ से कोई अड़चन नहीं है। कहो कि मैं चला । सम्राट फिर चौंका। और उस फकीर ने कहा कि देखो, तुम भोग को समझ सकते हो, तुम त्याग को समझ सकते हो; तुम संत को नहीं समझ सकते। मुझे क्या अड़चन है ? इधर गए कि उधर गए, सब बराबर है । सब दिशाएं उसी की हैं। महल में रहे कि झोपड़े में, सब महल, सब झोपड़े उसी के हैं। फटे कपड़े पहने कि शाही कपड़े पहने, जमीन पर सोए कि शय्या पर, बहुमूल्य शय्या पर सोए; सभी उसका। जो दे दे वही ले लेते हैं। जो दिखा दे वही देख लेते हैं। अपनी कोई मर्जी नहीं। बोलो, क्या इरादा है ? कहो तो हम लौट पड़ें। मगर तुम पर फिर बुरी गुजरेगी। इसलिए बेहतर है तुम हमें जाने दो; कम से कम श्रद्धा तो बनी रहेगी। तुम कम से कम कभी याद तो कर लिया करोगे कि किसी त्यागी से मिलना हुआ था। शायद वह याद तुम्हारे लिए उपयोगी हो जाए।
तुम्हारे कारण बहुत से संत त्याग में जीए हैं, झोपड़ों में पड़े रहे हैं, वृक्षों के नीचे बैठे रहे हैं । तुम्हारे कारण ! क्योंकि तुम समझ ही न पाओगे। तुम समझ ही व्यर्थ बातें सकते हो । सार्थक की तुम्हें कोई पहचान नहीं है। की पहचान हो भी नहीं सकती, जब तक तुम उस सार्थकता को स्वयं उपलब्ध न हो जाओ। तुम कैसे पहचानोगे संत को बिना संत हुए? वही गुणधर्म तुम्हारी चेतना का भी हो जाए, वही सुगंध तुम्हें भी आ जाए, तभी तुम पहचानोगे । कृष्ण हुए बिना कृष्ण को पहचानना मुश्किल है। लाओत्से हुए बिना लाओत्से को पहचानना मुश्किल है।
.. तुम यहां मेरे पास हो; निरंतर मुझे सुनते हो, हर भांति मेरे रंग में रंगे हो; फिर भी तुम मुझे पहचान नहीं सकते जब तक तुम ठीक मेरे जैसे ही न हो जाओ। तब तक तुम्हारी सब पहचान बाहर बाहर की, तब तक तुम्हारी सब पहचान अधूरी, तब तक तुम्हारी सब पहचान तुम्हारी ही व्याख्या । उससे मेरा कुछ लेना-देना नहीं है। अगर तुम इतना भी समझ लो तो काफी समझना है। क्योंकि यह समझ तुम्हें और आगे की समझ की तरफ सीढ़ी बन जाएगी।
'जो चरित्र का धनी है वह शिशुवत होता है।'
बचकाना नहीं, बालक जैसा । अविकसित नहीं; कहीं बचपन में अटक नहीं गया कि बढ़ न पाया हो। इतना बढ़ा, इतना बढ़ा, इतना बढ़ा कि वापस बच्चा हो गया। क्योंकि सभी चीजें बढ़ कर अपने मूल स्रोत पर आ जाती हैं। जीवन वर्तुलाकार है । जीवन की सभी गति वर्तुलाकार है। चांद-तारे घूमते हैं वर्तुल में, पृथ्वी घूमती है वर्तुल में, सूरज घूमता है वर्तुल में । पृथ्वी एक वर्ष में चक्कर लगा लेती है सूरज का; एक वर्तुल पूरा हो जाता है। सूरज स्वयं पच्चीस सौ वर्षों में किसी महासूर्य का चक्कर लगा रहा है। इसीलिए तो पच्चीस सौ वर्षों में चेतना में फिर से ज्वार-भाटा आता है। एक वर्ष पूरा हुआ सूरज का । एक वर्ष में पृथ्वी चक्कर लगाती है; इसीलिए तो मौसम पैदा होते