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________________ ताओ उपनिषद भाग ५ तो संत कभी भोगी जैसा दिख सकता है तुम्हें, कभी त्यागी जैसा दिख सकता है तुम्हें। यह तुम्हारे ऊपर निर्भर है कि तुम कैसे व्याख्या करोगे। लेकिन संत न भोगी है और न त्यागी है; शिशुवत है। जीवन जैसे एक खेल है। उस खेल में गंभीरता नहीं है। हो नहीं सकती। खेल में कहीं गंभीरता होती है? __इसलिए साधु को जब भी तुम गंभीर देखो तो समझना कि कहीं कोई चीज गड़बड़ हो गई; कोई रोग लग गया; त्याग का रोग लग गया। पहले भोग का रोग लगा था, अब त्याग का रोग लग गया। और अगर भोग निमोनिया है तो त्याग डबल निमोनिया है। जब भोग ही गलत है तो भोग का छोड़ना तो और भी गलत होगा। भोग के पार होना है; छोड़ने में ग्रसित नहीं हो जाना। इसलिए संत को पहचानना कठिन है। इन दो को तुम पहचान सकते हो। भोगी को तुम भलीभांति जानते हो; तुम्हारा अपना अनुभव भी भोग का है। त्यागी को भी तुम जानते हो, क्योंकि वह तुमसे विपरीत है। उसको तौलने में कठिनाई नहीं है। तुम पूरब जा रहे हो, वह पश्चिम जा रहा है। साफ दिखाई पड़ता है कि उसकी पीठ दिखाई पड़ रही है। जिस तरफ तुम चेहरा किए हो उस तरफ वह पीठ किए है। जहां तुम उन्मुख हो वहां वह विमुख है। भाषा एक ही है। मार्ग एक ही है। सीढ़ी एक ही है। साफ-साफ पहचान हो जाती है। लेकिन संत को तुम न पहचान पाओगे। इसलिए संत अक्सर बिना पहचाने मर जाते हैं। क्योंकि वे कहां जा रहे हैं, तुम पक्का ही नहीं कर पाते। तुम अगर उनसे कहो कि चलो पूरब की तरफ, तो तुम्हारे साथ हो लेते हैं कि चलो, थोड़ा टहलना ही हो जाएगा। तभी संदेह पकड़ जाता है कि यह कैसा संत! हमको ले जाना था पश्चिम की तरफ, सो उलटा हमारे साथ आ रहा है और कहता है टहलना हो जाएगा। झेन कथा है। एक सम्राट एक फकीर के प्रेम में था। और सम्राट अक्सर फकीरों के प्रेम में पड़ जाते हैं। क्योंकि फकीर बड़ी दूसरी दुनिया का अजनबी मालूम पड़ता है। अपने ही जैसा नहीं, अपने से बड़ा अजीब लगता है। और अजनबी में आकर्षण होता है। जो अपने से बहुत भिन्न है उसमें एक रस होता है। जो अपने से विपरीत है उसको जानने की जिज्ञासा जगती है। वह किसी और लोक का निवासी है। जैसे कोई खबर कर दे कि कोई चांद का आदमी . चांद से उतर कर बाजार में आ गया है, माणिक चौक में खड़ा है, तो सारे लोग भागें अजनबी को देखने, चांद से आए आदमी को देखने। ऐसे ही सम्राट अक्सर फकीरों के प्रेम में पड़ जाते हैं। ___ यह सम्राट प्रेम में था। और प्रेम से ही इसने एक दिन निवेदन किया कि मुझे बड़ा दुख होता है कि तुम वृक्ष के नीचे पड़े हो। मैं यहां मौजूद हूं सेवा के लिए, महल मेरा मौजूद है, खाली पड़ा है। इन सैकड़ों कक्षों में कोई रहने वाला नहीं है। मैं अकेला हूं। तुम चलो! लेकिन कभी उसने यह न सोचा था कि फकीर राजी हो जाएगा। फकीर अपना बोरा-बिस्तर बांध कर खड़ा हो गया। उसने यह भी न कहा कि सोचूंगा। सम्राट एकदम हताश हो गया कि यह आदमी तो अपने ही जैसा निकला। फंस गए। कहां भूल में पड़े रहे! यह तो ठीक भोगी मालूम पड़ता है। इसने एक दफा न भी न की। जैसे प्रतीक्षा ही कर रहा था। जैसे सब आयोजन यह फकीरी का इसीलिए था कि कब महल में निमंत्रण मिल जाए। फंस गए। इसके जाल में उलझ गए। अब अपना शब्द वापस भी कैसे लें? लाना पड़ा फकीर को, लेकिन बेमन से। खुशी चली गई। ठहराया, लेकिन बेमन से। लेकिन अब अपने शब्द को कैसे वापस लेना? छह महीने फकीर राजा के महल में रहा। धीरे-धीरे तो राजा ने आना भी बंद कर दिया कि इसकी क्या सुनना; हमारे ही जैसा आदमी है। ठीक है, रहता है। सब व्यवस्था कर दी और बिलकुल भूल गया। छह महीने बाद एक दिन सुबह फकीर को बगीचे में टहलते देखा तो आया और कहा, महाराज, अब तो मुझमें और आप में कोई फर्क ही नहीं; जैसा मैं वैसे आप। अब क्या फर्क रहा? 160
SR No.002375
Book TitleTao Upnishad Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1995
Total Pages440
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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