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शिशुवत चनिन ताओ का लक्ष्य है
तुम उसे रोता हुआ न पाओगे। और कोई उसकी चीज छीन ले तो तुम उसे अदालत जाते हुए न पाओगे। वह किसी की चीज नहीं छीनेगा। क्योंकि जो अज्ञान में जी रहे हैं, उनकी तो धारणा में स्वामित्व है; वे चीजें उनकी हैं। अगर उसकी चीज तुम छीन लोगे तो वह स्वामित्व का दावा नहीं करेगा। वह दावा उसके बाहर है। स्वामित्व का बोध उसका गिर गया है। क्योंकि उसने परम स्वामी को जान लिया; वही मालिक है।
शिशुवत होगा, लेकिन फर्क होंगे। चरित्र का धनी होगा। भीतर से आता उसका स्वभाव, बहता हुआ, उसके चरित्र में होगा। और जिसके पास चरित्र का धन है उसे किसी और धन की आकांक्षा नहीं है। इसलिए कई बार तुम संत को समझ भी न पाओगे। कई बार तुम्हें भूल हो जाएगी।
कबीर ने अपने बेटे को अलग कर दिया था, क्योंकि बेटा बड़ा विद्रोही था। कबीर तो समझते थे। निश्चित समझते रहे होंगे। कबीर न समझेंगे तो कौन समझेगा! लेकिन कबीर के शिष्यों को उससे अड़चन होती थी। तो कबीर ने उससे कहा कि तू ऐसा कर कमाल, कि तू अलग ही हो जा। इनको बार-बार कष्ट क्यों देना? तो कमाल पास ही एक अलग झोपड़े में रहने लगा था। काशी के नरेश कबीर को मिलने आते थे। पूछा, कमाल दिखाई नहीं पड़ता! तो कबीर ने कहा कि उसे अलग कर दिया है। शिष्यों के साथ तालमेल नहीं खाता। तो नरेश मिलने गए। शिष्यों से पूछा तो उन्होंने कहा कि वह लोभी है। और कबीर के पास उसका होना ठीक नहीं। कोई कुछ भेंट लाता है तो कबीर तो कहते हैं, कोई जरूरत नहीं, लेकिन वह रख लेता है सम्हाल कर। तो वह संग्रह कर रहा है।
तो नरेश ने कमाल से पूछा कि तू ऐसा क्यों करता है? तो उसने कहा कि जब चीजों का कोई मूल्य ही नहीं है तो क्या लौटाना? वह ले आया बेचारा, यहां तक बोझ ढोया, अब फिर वापस ले जाए। कबीर की कबीर समझें, बाकी मैं समझ पाया हूं कि जब कोई मतलब ही नहीं है और चीज किसी की भी नहीं है, न तुम्हारी है, न मेरी है, तो किसी के पास रहे क्या फर्क पड़ता है!
नरेश को थोड़ा संदेह हुआ कि बात तो ज्ञान की कर रहा है, लेकिन चालाक मालूम पड़ता है। तो उसने अपनी जेब से एक बड़ा बहुमूल्य हीरा निकाला और कहा कि यह रख। कमाल ने कहा, है तो पत्थर, लेकिन अब ले ही आए तो रख जाओ। कहां रख दूं, नरेश ने पूछा। तो कमाल ने कहा, तुम समझे नहीं। क्योंकि तुम पूछते हो कहां रख दूं, तो तुम्हें यह पत्थर नहीं है, तुम इसे हीरा ही मान रहे हो। कहीं भी रख दो, पत्थर ही है! तो नरेश ने उसकी झोपड़ी में, छप्पर में खोंस दिया। सनौलियों का छप्पर था, उसमें खोंस दिया।
पंद्रह दिन बाद वापस आया देखने कि हालत क्या है। पक्का था उसे कि मैं इधर बाहर निकला कि उसने हीरा निकाल लिया होगा। अब तक तो हीरा बिक भी चुका होगा, बाजार पहुंच चुका होगा। लाखों की कीमत का था। पहुंचा, बैठा। पूछा कि हीरे का क्या हुआ? कमाल ने कहा, फिर वही बात ! जब पत्थर ही है तो भूल क्यों नहीं जाते!
और फिर भेंट भी दे दी, फिर भी याद जारी रखते हो। अगर बहुत ही उत्सुकता है तो जहां रख गए वहीं देख लो। अगर किसी ने न निकाला हो तो वहीं होगा। नरेश समझ गया कि है तो चालाक। यह कह रहा है अगर किसी ने न निकाला हो! निकाला खुद ने ही होगा। उठ कर देखा, हीरा वहीं का वहीं रखा था।
यह संत का व्यवहार है। बड़ा कठिन है इस धनी आदमी को पहचानना।
तुम पहचान लोगे अगर वह कहे कि ले जाओ, मैं छूता नहीं। तुम कहोगे, परम साधु है। तुम त्यागी को परम साधु कहते हो। लेकिन त्यागी भोगी का ही विपरीत है; त्यागी भोगी का ही उलटा छोर है। भोगी पकड़ता है, त्यागी छोड़ता है; लेकिन दोनों की संपदा मध्य में है। पकड़ो या छोड़ो, लेकिन दोनों मानते हो धन का मूल्य है। संत शिशुवत है। धन का कोई मूल्य नहीं है; न पकड़ने में आतुर है, न छोड़ने में आतुर है। क्योंकि छोड़ने की आतुरता भी बताती है कि तुम्हारे मन में अभी जागरण नहीं हुआ, अभी विवेक का उदय नहीं हुआ।
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