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________________ ताओ उपनिषद भाग ५ होगा ज्ञानी की भी। दीवार से निकलने लगे तो मूढ़ है। दरवाजे से निकले और जाने कि दरवाजा भी दीवार का ही हिस्सा है, दोनों संयुक्त हैं, दोनों में भेद है व्यावहारिक। अगर निकलना हो तो भेद है; न निकलना हो तो दोनों एक ही अखंड भवन के हिस्से हैं। पारमार्थिक भेद नहीं है। अंततः भेद नहीं है। लेकिन व्यावहारिक रूप से बड़ा भेद है। ज्ञानी भेद को जानते हुए अभेद को पहचानता रहता है। स्वर अलग-अलग हैं, लेकिन ज्ञानी की दृष्टि स्वरों पर नहीं होती, स्वरों के बीच जो लयबद्धता है उस पर होती है। ज्ञानी भेद कर सकता है, करता है। लेकिन अभेद में जीता है। अज्ञानी भेद नहीं कर सकता; करना भी चाहे तो करने का उसके पास उपाय नहीं है। वह भी अभेद में जीता है। तो तुम बच्चे जैसे होने की कोशिश में मूढ़ जैसे मत हो जाना। अन्यथा तुम चूक गए, तुम समझ न पाए। मूढ़ता परमहंसत्व नहीं है। परमहंसत्व में मूढ़ता का एक तत्व है; और वह तत्व है अभेद। और परमहंसत्व में साधारण सांसारिक का भी एक तत्व है; वह है भेद। परमहंस का अर्थ है, जिसमें संसार और परमात्मा मिल गए, एक हो गए। जो संसारी जैसा भेद करता है और मूढ़ जैसे अभेद में जीता है; जो दोनों का परम संगीत है। इस परम संगीत को लाओत्से तथाता कहता है। सब उसे स्वीकार है। और सब स्वीकार के माध्यम से उसने एक लयबद्धता खोज ली है। अब उसका संगीत अखंडित है। शिशुवत होना! हमारे पास दो शब्द हैं भाषा में, एक शब्द है बालपन और दूसरा शब्द है बचकाना। बचकाने मत हो जाना। क्योंकि वह तो मूढ़ता का लक्षण है। शिशुवत होना, बालपन को उपलब्ध होना। वह शिशु जैसा है, फिर भी शिशु से बहुत दूर है। शिशु से बहुत भेद है। 'जो चरित्र का धनी है वह शिशुवत होता है।' हमने चर्चा की पीछे कि किस बात को लाओत्से वास्तविक चरित्र कहता है। वह कहता है, स्वभाव से जिस जीवन का आविर्भाव हो वह चरित्र है। अब कहता है, 'जो चरित्र का धनी है वह शिशुवत है।' जिसके पास भीतर से आ रहा है चरित्र, जिसकी धारा भीतर से बाहर की तरफ बह रही है, जो केंद्र से परिधि की तरफ बह रहा है, जैसे सूरज की किरणें उसके अंतस से निकलती हैं और सारे संसार में व्याप्त हो जाती हैं, ऐसा जो बह रहा है केंद्र से परिधि की ओर सूर्य की भांति, ऐसे धनी व्यक्ति का, चरित्र के धनी व्यक्ति का स्वभाव शिशु के जैसा होगा। शिशु के क्या लक्षण हैं? एक लक्षण है कि अभी वह अभेद में है, उसे मेरा-तेरा पता नहीं। छोटा बच्चा दूसरे के हाथ में खिलौना देख कर चीखने-चिल्लाने लगता है कि मुझे चाहिए। हम उस पर नाराज नहीं होते। हम कहते हैं, बालक है। लेकिन यही बालक कल बीस साल का हो जाएगा और फिर भी दूसरों की चीजें देख कर चिल्लाने लगे तो हम नाराज होंगे। हम कहेंगे, क्या बचकानापन कर रहे हो? वह तुम्हारी नहीं है। मेरे-तेरे का भेद करो। जो अपना है वह तम मांग सकते हो; जो दूसरे का है उसे मांगना अनुचित है। अपने के तुम मालिक हो, दूसरे की चीज उठा लेना चोरी है। इसलिए छोटे बच्चों को अदालतें दंड नहीं देती हैं अगर वे चोरी भी कर लें। क्योंकि जिन्हें अपने-तेरे का भेद नहीं है, उनको चोरी का क्या सवाल है? उन्हें पता ही नहीं है कि चीजें किसी की होती हैं या मालकियत जैसी कोई चीज है। स्वामित्व अभी पैदा नहीं हुआ। संत भी स्वामित्व को नहीं मानता। लेकिन इसका यह मतलब नहीं है कि वह तुम्हारी चीज उठा लेगा। संत भी स्वामित्व को नहीं मानता। लेकिन इसका यह अर्थ नहीं है कि वह तुम्हारे घर में घुस जाएगा और चोरी करेगा। जानता है कि चीजें किसी की भी नहीं हैं, सभी कुछ परमात्मा का है, स्वामित्व के सभी दावे गलत हैं; यह जानते हुए भी होशपूर्ण जीएगा और सर्वाधिक अपनी चीजों पर कोई स्वामित्व नहीं रखेगा। और कोई अगर उसकी चीजें छीन ले तो 158
SR No.002375
Book TitleTao Upnishad Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1995
Total Pages440
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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