________________
शिशुवत चनिन्न ताओ का लक्ष्य है
तुम्हें पता नहीं होगा, शरीरशास्त्री जबड़े के कारण बड़े चकित हैं। क्योंकि जबड़े को तुम चौबीस घंटे सम्हाले रहते हो, तभी वह ऊपर है। नहीं तो गुरुत्वाकर्षण के कारण वह नीचे लटक ही जाना चाहिए। तुम्हारा मुंह खुला रहना चाहिए साधारणतः। और अगर तुम बिलकुल ढीला छोड़ दो तो तुम पाओगे, तुम्हारा मुंह खुल गया।
मूढ़ आदमी का एक लक्षण है, उसका जबड़ा खुला होगा; छोटे बच्चों जैसा होगा जबड़ा उसका। इसीलिए तो छोटे बच्चे के गले पर टावेल बांधना पड़ता है कि उसका थूक टपकता रहे तो कोई चिंता नहीं। थूक तो तुम्हारे मुंह में भी चौबीस घंटे बनता है, लेकिन तुम उसे लील जाते हो। जबड़ा खुला रहे तो वह बाहर की तरफ बहता है।
थूक टपक रहा था, उसे लोग हाथ में ले-लेकर प्रसाद की भांति ग्रहण कर रहे थे। वह आदमी निपट मढ़ था।
लेकिन मूढ़ भी संतों जैसा मालूम हो सकता है; क्योंकि उसे भी अभेद तो है। भारत में बहुत से मूढ़ पूजे जाते रहे हैं। अभी भी पूजे जा रहे हैं। क्योंकि परमहंस और उनमें कुछ साम्यता है। परमहंस का भेद खो जाता है।
लेकिन भेद खो जाने का यह मतलब नहीं है कि वह भोजन की जगह मिट्टी खाने लगता है। वह जानता है कि भोजन भी मिट्टी है, मिट्टी से ही पैदा होता है। आखिर मिट्टी ही तो गेहूं बनती है; गेहूं रोटी बनता है। वह जानता है कि भेद जरा भी नहीं है। लेकिन फिर भी मिट्टी को नहीं खाने लगता। क्योंकि यह अज्ञान नहीं है, यह विवेक है। मिट्टी पचाई नहीं जा सकती। भेद तो नहीं है, मिट्टी ही गेहूं बनती है; लेकिन गेहूं मिट्टी का ऐसा ढंग है जो शरीर में पच सकता है। यह विवेक कायम रहता है।
आखिर पाखाने और खाने में फर्क क्या है? खाना ही तो पाखाना हो जाता है। फर्क तो जरा भी नहीं है। जिसे तुम मुंह से डालते हो वही तो आखिर पाखाना होकर निकल जाता है। लेकिन इसका यह अर्थ नहीं है कि संत पाखाने को खाने लगेगा। क्योंकि खाते हम इसलिए हैं, ताकि उससे शरीर चल सके। वे सब तत्व तो पाखाने से खींच लिए गए जो शरीर के काम के थे। अब तो जो असार है वह छोड़ दिया गया है।
भेद कुछ भी नहीं है, लेकिन व्यावहारिक भेद है। पारमार्थिक भेद कुछ भी नहीं है, व्यावहारिक भेद है। तुम्हारा शरीर किन्हीं चीजों को स्वीकार करता है, किन्हीं को स्वीकार नहीं करता। शरीर की सीमाएं हैं। शरीर पत्थर नहीं खा सकता, मिट्टी नहीं खा सकता। मिट्टी से ही सब बनता है, लेकिन बनने की प्रक्रिया में वह इस योग्य हो जाता है कि तुम उसे खा सकोगे। पौधे कर क्या रहे हैं? पौधे यही कर रहे हैं कि मिट्टी को फल बना रहे हैं। फल को तुम पचा सकते हो। पौधे मिट्टी को पचा सकते हैं। मिट्टी पौधों के द्वारा पचा कर एक रूपांतरण से गुजरती है। एक केमिकल, रासायनिक परिवर्तन हो जाता है उसमें, वह तुम्हारे भोजन के योग्य हो जाती है।
- संत यह जानता है कि जीवन इकट्ठा है, अद्वैत है। यह वृक्ष तुम्हारा साथी है; इसके बिना तुम न जी सकोगे। क्योंकि यह फल बना रहा है तुम्हारे लिए। सारा अस्तित्व जुड़ा है और एक है। सूरज की किरणें पड़ रही हैं, वृक्ष उन्हें पी रहा है; उन किरणों को फलों में इकट्ठा कर रहा है। फलों में इकट्ठी होकर वे विटामिन बन गई हैं। तुम सूरज की किरण को सीधी ज्यादा न पी सकोगे। थोड़ी सी पी सकते हो चमड़ी के द्वारा; डी विटामिन थोड़ा सा तुम चमड़ी के द्वारा पी सकते हो। लेकिन वह भी ज्यादा नहीं। ज्यादा पीओगे तो सारा शरीर काला पड़ जाएगा। इसलिए तो गर्म मुल्कों में शरीर काला हो जाता है। अगर बहुत पी जाओगे डी विटामिन तो चमड़ी बिलकुल काली हो जाएगी। शरीर से नहीं पीया जा सकता सीधा, लेकिन फलों के माध्यम से डी विटामिन की जो जलाने की क्षमता है वह कम हो जाती है। फिर तुम कितने ही फल ले सकते हो; फिर वे जीवनदायी हैं। जीवन संयुक्त है।
लेकिन इसका यह अर्थ नहीं है कि तुम चीजों में भेद करना छोड़ दोगे। मूढ़ भेद ही नहीं कर सकता। ज्ञानी भेद कर सकता है, विवेक को उपलब्ध हुआ है, फिर भी भेद में अभेद को जानता है। ज्ञानी निकलेगा तो दरवाजे से निकलेगा, यद्यपि दरवाजा और दीवार में अभेद है। दोनों एक ही घर के हिस्से हैं। लेकिन निकलना तो दरवाजे से
157