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________________ ताओ उपनिषद भाग ५ करता। लेकिन नींद टूटेगी। भेद शुरू होगा। बचपन तो जाएगा। पानी की लहर है। बच्चा तैयार हो रहा है टूटने को; संसार में उतरने को। वह तैयारी के पहले का क्षण है। संत तैयार नहीं हो रहा है संसार के लिए; संत संसार से गुजर चुका। संत संसार के पार हो चुका। जान लिया जो जानना था; भटक लिया व्यर्थ में। क्योंकि व्यर्थ के भटकाव में ही सार्थकता की तलाश थी। असार को जान लिया, उसे सार की पहचान आ गई। कांटों में गिरा, क्योंकि बिना गिरे फूलों को पहचानने का कोई उपाय न था। कंकड़-पत्थर भी बीने, क्योंकि हीरों को जांचने की तब कोई सुविधा न थी। अब विवेक जगा। अनुभव से जगता है विवेक। बच्चा गैर-अनुभवी है। निर्दोष है, लेकिन अनुभव के न होने के कारण निर्दोष है। तो बचपन की निर्दोषता नकारात्मक है। इस बात को ठीक से समझ लेना। वह विधायक नहीं है। संत की निर्दोषता विधायक है। जानने के कारण है, अज्ञान के कारण नहीं। अंधेरे के कारण नहीं है, रोशनी के कारण है। अंधेरी रात में नींद के कारण वह साधु नहीं है, खुले प्रकाश में भरी दुपहरी में अपने बोध के कारण साधु है। लेकिन है बच्चे जैसा। जो बच्चे को अज्ञान में हो रहा था अब उसे वह ज्ञान में हो रहा है। बच्चे का तो मिटता; उसका अब कभी न मिटेगा। उसने शाश्वत को पा लिया। बच्चे को भेंट मिली थी प्रकृति से; उसने अर्जित किया है। उसने खोजा, पीड़ा पाई, अग्नि से गुजरा, निखरा। यह निखार अब उसे छोड़ न सकेगा। यह किसी की देन नहीं है जो छीन ली जाए। न यह बाहर की भेंट है जो चोरी चली जाए। यह अब आविर्भाव हुआ है अंतस में, अब इसे कोई भी छीन न सकेगा। इसकी चोरी नहीं हो सकती। इस पर जंग भी नहीं लग सकती। क्योंकि यह चैतन्य का आविर्भाव है। प्रकृति जो भी देती है उस पर तो जंग लग जाएगी; क्योंकि वह पदार्थ से आया है। बचपन शरीर से आया है; संतत्व चेतना से। बच्चे की निर्दोषता प्रकृति से जुड़ी है; संत की परमात्मा से। बच्चा अवश है; संत अवश नहीं है, अपने वश में है। लेकिन फिर भी दोनों में एक समानता है। और वह समानता यह है कि दोनों अद्वैत में जी रहे हैं। इसलिए संत शिशुवत है। शिशु ही नहीं, शिशुवत। इस फर्क को भी खयाल में ले लेना। नहीं तो तुम कहीं शिशुवत होने के खयाल से शिशु जैसे होने मत लग जाना। वह तो मूढ़ता होगी। तुमने अगर मूढ़ों को देखा हो तो वे भी बच्चों जैसे हैं। पागलखानों में जाकर तुम उन्हें देख सकते हो। उनका विकास ही नहीं हुआ; वे अटक गए। उनकी ऊर्जा कहीं उलझ गई; वे जवान नहीं हो पाए। वे भटक न पाए संसार में। मूढ़ कौन है? मूढ़ वह बालक है जिसका बालपन अटक गया। इसलिए तो हम उसे रिटार्डेड कहते हैं, उसे कहते हैं कि वह विकसित नहीं हो पाया। तो बचपन में तो बालपन सुंदर मालूम पड़ता है, मूढ़ में बड़ा कुरूप हो जाता है। तो तुम मूढ़ता को मत आरोपित कर लेना। ऐसा हुआ है। भारत में ऐसे कई मूढ़ हैं जो संतों की तरह पूजे जाते हैं। वे सिर्फ मूढ़ हैं। अगर दूसरे किसी मुल्क में होते तो पागलखानों में होते या मनोचिकित्सालय में होते, उनका इलाज हो रहा होता। यहां वे संतों की भांति पूजे जाते हैं। उनकी मूढ़ता के कारण उन्हें भेद नहीं है। एक बार मैं एक गांव में मेहमान था। वहां एक संत की बड़ी पूजा थी। तो मैं देखने गया। वे संत थे ही नहीं, वे मूढ़ थे। लेकिन लोग व्याख्या कर रहे थे। जैसे कि वे वहीं पाखाना कर लेते, वहीं बैठे खाना खाते रहते; इसको लोग समझते थे परमहंस की अवस्था हो गई। यह परमहंस की अवस्था नहीं है, सिर्फ मूढ़ता है। उनमें बोध जन्मा ही नहीं; वे छोटे बच्चे जैसे हैं। जैसे छोटा बच्चा कर सकता है यह। पाखाना कर ले, वहीं बैठ कर खाना खाता रहे। अभी पाखाने और खाने का फर्क उसे हुआ नहीं है। ये संत भी उसी दशा में थे। उनके मुंह से लार टपक रही, जैसे छोटे बच्चों को टपकती रहती है। लोग उनकी लार का प्रसाद ले रहे थे। और वह लार इसलिए टपक रही थी कि उनका जबड़ा लटका हुआ था। मूढ़ों का जबड़ा लटका होता है। 156
SR No.002375
Book TitleTao Upnishad Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1995
Total Pages440
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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