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आत्म-ज्ञान की सच्चा ज्ञान है
लेकिन पंडित की गांठ बड़ी सूक्ष्म है। मैंने अब तक कोई पंडित नहीं देखा जो सरल हो, जो निर्दोष हो। न उसने हत्या की है, न किसी की चोरी की है। तुम उसे कानून में नहीं पकड़ सकते। कानून की दृष्टि में उसने कभी किसी को कोई नुकसान नहीं पहुंचाया है। वह अपनी किताब में उलझा रहा। फुरसत भी नहीं है उसे कानून को तोड़ने की। लेकिन उसने प्रकृति के गहनतम कानून को तोड़ डाला है। उसने परमात्मा के नियम के विपरीत जाने की कोशिश की है; उसने ज्ञान का फल चखा है। वह बड़ा सूक्ष्म है। वह ऊपर से बाहर से उसने किसी के खिलाफ कुछ नहीं किया है। समाज के विपरीत उसने कुछ भी नहीं किया है। जो भी किया है, अपने ही विपरीत किया है, और अपने परमात्मा के विपरीत किया है। वह बिलकुल सूक्ष्म है। वह सूक्ष्मता क्या है?
उसने सीख-सीख कर ज्ञानी बनने की कोशिश की है। जब कि ज्ञानी तुम पैदा हुए थे। सीखने को कुछ प्रकृति ने छोड़ा नहीं है। परमात्मा ने तुम्हें पाने को कुछ छोड़ा नहीं, सभी दिया हुआ है। तुम पूरे के पूरे पैदा किए गए हो। तुम परिपूर्ण हो। ऐसा होगा भी, क्योंकि परिपूर्ण परमात्मा से अपूर्ण का जन्म कैसे हो सकता है? और अगर अपूर्ण का जन्म होता है तो परमात्मा परिपूर्ण नहीं हो सकता।
कहावत है गांव में कि बाप को जानना हो तो बेटे को जान लो। बेटे को जानने से बाप का पता चल जाता है। दूसरी कहावत है कि फल को चखने से वृक्ष का पता चल जाता है।
तुम फल हो। तुम्हारा स्वाद ही परमात्मा का स्वाद होगा। क्योंकि उसमें ही तुम लगे हो। वह तुम्हारी जड़ है। तुम बेटे हो; वह तुम्हारा पिता है। अगर तुम अपूर्ण हो तो वह पूर्ण नहीं हो सकता। और अगर वह पूर्ण है तो तुम्हारी अपूर्णता कहीं भ्रांति है; कहीं तुमने कुछ गलत समझ लिया, सोच लिया। तुम पूर्ण ही पैदा हुए हो। पूर्ण से पूर्ण ही पैदा होता है। शुद्ध से शुद्ध का ही जन्म होता है। अन्यथा नहीं हो सकता। कोई उपाय नहीं है अन्यथा होने का।
पंडित यही सूक्ष्म पाप कर रहा है। वह उस ज्ञान को खोज कर अपने में भर रहा है जिसको कि लेकर ही आया था।
तुम ऐसे हो कि तुम्हारे भीतर तो हीरे-जवाहरात भरे हैं और तुम बाहर सड़क के किनारे कंकड़-पत्थर बीन कर ढेर लगा रहे हो। तुम्हारी गरीबी तुम्हारी मान्यता में है। परमात्मा को पाना हो तो सिर्फ इस मान्यता को तोड़ देने की जरूरत है। परमात्मा को पाने का अर्थ है : इस उदघोष से भर जाना कि मैं परमात्मा सदा से हूं। कुछ और करने की जरूरत नहीं है। वेद और उपनिषद कंठस्थ करने की जरूरत नहीं है। उनको कंठस्थ करके तुम कचरा ही कंठस्थ कर लोगे। शब्द में सार नहीं है। जो भी तुम सीख लोगे वही तुम पाओगे कचरा है। सीखने की बात नहीं है।
कबीर कहते हैं, लिखा-लिखी की है नहीं, देखा-देखी बात।
लिख-लिख कर, पढ़-पढ़ कर क्या तुम पाओगे? शब्दों की जमात हो जाएगी भीतर, भीड़ लग जाएगी, पंक्तिबद्ध शब्द खड़े हो जाएंगे। तर्क होंगे, सिद्धांत होंगे। ज्ञान बात और है। न तो तर्क ज्ञान है, न सिद्धांत ज्ञान है। ज्ञान तो तुम्हारा अंतर-बोध है। किताब से कैसे अंतर-बोध जन्माओगे? पी जाओ घोल कर, तो भी किताब तुम्हारे शरीर के भीतर ही जाएगी, आत्मा में नहीं पहुंच जाएगी। तुम्हारी स्मृति तुम्हारे शरीर का हिस्सा है।
__ इसलिए तो कोई आदमी गिर पड़ता है ट्रेन से, सिर में चोट लग गई, स्मृति खो गई। कहीं ट्रेन से गिरने में आत्मा को चोट लगती है? किसी ने सिर पर एक लट्ठ मार दिया, चोट खा गए, स्मृति खो गई, सिर चकरा गया। स्मृति तुम्हारे शरीर का हिस्सा है।
इसलिए पश्चिम में वैज्ञानिकों ने रास्ते निकाल लिए हैं। रूस में और चीन में उनका उपयोग हो रहा है कि कोई आदमी अगर कम्युनिस्ट-विरोधी हो तो वे उसको समझाते-बुझाते नहीं हैं। वे कहते हैं, यह बहुत लंबी प्रक्रिया है, पिटी-पिटाई, पुरानी, बैलगाड़ी के दिनों की। इस जेट के युग में जहां हम चांद पर पहुंच रहे हैं, कहां बैलगाड़ी की
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