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ताओ उपनिषद भाग ५
क्या है, वही का वही रूमाल है। गांठ लगने से क्या होता है? रूमाल के स्वभाव में तो कोई फर्क नहीं हुआ। रूमाल तो वही है, धागा-धागा वही है, ताना-बाना वही है, रंग-ढंग वही है, कीमत वही है। गांठ लगने से क्या होता है? और हम अगर कहें कि बदल गया तो आप ऐसा कहेंगे। और हम अगर कहें कि रूमाल वही है तो आप कहेंगे, वही कैसे हो सकता है? इसमें पांच गांठें नई लग गई हैं! और पहले रूमाल में तुम कुछ चीज-बसद बांध लेते, अब तो न बांध सकोगे। पहले तो इस रूमाल से सिर को ढांक लेते, अब तो न ढांक सकोगे। इस रूमाल का गुणधर्म बदल गया, इसका उपयोग बदल गया। तो उस भिक्षु ने कहा कि आप हमें व्यर्थ की तर्क की उलझन में मत डालें। आपका प्रयोजन क्या है?
बुद्ध ने कहा कि यही मनुष्य का स्वभाव है। ज्ञान की कितनी ही गांठें लग जाएं, एक अर्थ में तो तुम वही रहते हो जो तुम सदा से थे, लेकिन एक अर्थ में तुम बिलकुल बदल जाते हो, क्योंकि ज्ञान की हर गांठ तुम्हारे सारे उपयोग को नष्ट कर देती है। चेतना का एक ही उपयोग है, और वह उपयोग आनंद है। जैसे-जैसे गांठें लग जाती हैं, बंधन पड़ जाता है, पैर में जंजीरें अटक जाती हैं, आनंद खो जाता है; तुम कारागृह में पड़ जाते हो।
कारागृह में पड़े कैदी में और कारागृह के बाहर मुक्त व्यक्ति में क्या फर्क है ? व्यक्ति तो वही का वही है। तुम बाहर हो, कल कोई हथकड़ियां डाल कर तुम्हें जेल में डाल दे। क्या फर्क है? तुममें कोई भी तो फर्क नहीं हुआ। सिर्फ गांठ लग गई रूमाल में। अब तुम्हारी उपयोगिता बदल गई। खुला आकाश खो गया। अब तुम मुक्त नहीं हो; पंख जब चाहो तब न खोल सकोगे। गांठें पड़ गईं।
तो बुद्ध ने कहा, मैं तुम्हें यह बताना चाह रहा हूं कि तुम एक अर्थ में तो वही हो, जो तुम सदा से थे। क्योंकि ज्ञान की गांठे क्या मिटा पाएंगी? और ज्ञान की गांठ पानी पर खींची लकीर जैसी है। लेकिन फिर भी सब बदल गया। तुम दूसरे हो गए हो; बिना दूसरे हुए दूसरे हो गए हो। यही पहेली है।
इसी को तो कबीर बार-बार कहते हैं, एक अचंभा मैंने देखा। वह इसी अचंभे की बार-बार बात करते हैं कि जो कभी नहीं बदल सकता वह बदल गया है। एक अचंभा मैंने देखा। जिस पर कोई गांठ नहीं लग सकती थी, गांठ । लग गई। आकाश-विराट आकाश-को क्षुद्र बदलियों ने घेर लिया। इतना बड़ा हिमालय पर्वत, और आंख में एक किरकिरी पड़ गई, और खो गया।
___ तो बुद्ध ने कहा, इसलिए। और दूसरी एक बात और कही। कहा कि मैं इन गांठों को खोलना चाहता हूं। और रूमाल के दोनों छोर पकड़ कर खींचे।
एक आदमी ने खड़े होकर कहा कि यह आप क्या कर रहे हैं! अगर इस तरह खींचेंगे तो गांठ और बारीक होती जा रही है। और गांठ जितनी बारीक हो जाएगी, उतना खोलना मुश्किल है। आप खींचिए मत। खोलने के लिए खींचना रास्ता नहीं है। इससे तो खोलना मुश्किल ही हो जाएगा। गांठ छोटी होती जा रही है।
जितना तुम्हारा ज्ञान सूक्ष्म होता जाता है उतनी गांठ छोटी होती जाती है, फिर उतना ही खोलना मुश्किल हो जाता है। इसीलिए तो मैं कहता हूं, कभी-कभी पापी भी पहुंच जाते हैं परमात्मा तक, पंडित नहीं पहुंचता। पापी की गांठ बड़ी मोटी है—किसी की चोरी कर ली, किसी को धोखा दे दिया, किसी की जेब काट ली-पापी की गांठ बड़ी मोटी है। जेब में ही कुछ नहीं था, काटने में क्या हो जाएगा? जेब में दो रुपए पड़े थे; काटना भी दो रुपए से ज्यादा का तो नहीं हो सकता। दुकानदार की कीमत कितनी थी, जिससे कि लुटेरे की कीमत ज्यादा हो जाएगी। दुकानदार के पास कुछ नहीं था; लुटेरा उस कुछ नहीं को लूट कर घर ले आया। गांठ बड़ी मोटी है। जिनको तुम कारागृह में बंद किए हो उनकी गांठें बड़ी मोटी हैं; जरा से इशारे से खुल जाएंगी। कभी कारागृह में जाकर देखो, अपराधी तुम्हें बड़े सरल और सीधे मालूम पड़ेंगे। उनसे सीधे जिनके खिलाफ उन्होंने अपराध किया है। उनकी गांठें बड़ी मोटी हैं, सस्ती हैं।