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________________ आत्म-ज्ञान ही सच्चा ज्ञान है फिर लौटने का एक ही उपाय है कि वह उस ज्ञान को छोड़ दे। और यह सर्वाधिक कठिन बात है। धन को छोड़ना आसान है, क्योंकि धन बाहर ही है। तिजोड़ी छोड़ कर भाग गए तो तिजोड़ी तुम्हारा पीछा न करेगी। पति, पत्नी, बच्चे छोड़े जा सकते हैं। वे भी बाहर हैं। थोड़े-बहुत दिन तुम्हारी याद करेंगे, फिर भूल जाएंगे। कौन किसकी याद सदा करता है? नये संबंध बना लेंगे, नये प्रेम का संसार बन जाएगा। घाव थोड़े दिन हरा रहेगा, फिर भर जाएगा। समय सभी घावों को भर देता है। तुम भाग गए तो तुम्हारे लिए कोई सदा थोड़े ही रोता बैठा रहेगा। पति-पत्नी को भी छोड़ा जा सकता है, लेकिन ज्ञान को कहां छोड़ जाओगे? जहां जाओगे, ज्ञान तुम्हारे साथ है, क्योंकि ज्ञान की तिजोड़ी भीतर है। वह तुम्हारे मस्तिष्क में है; वह स्मृति है। इसलिए ज्ञान को छोड़ना सबसे बड़ा त्याग है, महा कठिन। ध्यान उसी का तो प्रयोग है। ध्यान कोई ज्ञान नहीं है; ध्यान ज्ञान को छोड़ने की प्रक्रिया है। कैसे तुम्हारी स्मृति रिक्त और खाली हो जाए, शून्य हो जाए, कैसे तुम भीतर फिर से उस आकाश को पा लो जिसे लेकर तुम पैदा हुए थे, जो कि तुम्हारा स्वभाव है; उसी को लाओत्से ताओ कहता है। ताओ यानी स्वभाव, जिसे तुम लेकर ही पैदा हुए थे। और जिसे तुम दबा सकते हो, खो नहीं सकते; जिसे तुम भूल सकते हो, मिटा नहीं सकते; क्योंकि तुम ही हो, तुमसे भिन्न नहीं है वह। जिसे तुम्हें खोजना ही होगा। और जितना तुम इसे दबाओगे, उतनी ही तुम पीड़ा से भर जाओगे। क्योंकि जो अपने से ही दूर निकल गया, जो अपने से ही अजनबी हो गया, उसकी पीड़ा का तुम हिसाब नहीं लगा सकते। वही सबसे बड़ा संताप है इस जगत में अपने से अजनबी हो जाना। तुमने कभी खयाल किया, तुम्हारी पत्नी तुमसे थोड़ी दूर हो जाती है—किसी आवेग में, किसी क्रोध में, किसी रोष में ऐसा लगने लगता है कि पत्नी भी अजनबी है। तब तुम कैसा खाली अनुभव करते हो! एक दिन तुम्हारे बच्चे बड़े हो जाएंगे, पढ़ेंगे-लिखेंगे; तुम्हारे घोंसले को छोड़ कर उड़ जाएंगे। उनकी अपनी यात्रा है। उस दिन तुम्हें कैसी पीड़ा होगी-बच्चे भी अजनबी हो गए। लेकिन यह तो अजनबीपन कुछ भी नहीं है। जिस दिन तुम्हें यह समझ में आएगा कि पत्नी तो पराई थी, अगर दूर भी हो गई तो भी क्या; बच्चे हमसे पैदा हुए थे, लेकिन फिर भी हमारे तो नहीं थे, आए तो प्रकृति के किसी दूर स्रोत से थे, चले गए; लेकिन जब तुम्हें खयाल आएगा कि तुम खुद से ही अजनबी हो, तुम्हारी अपने से ही अपनी पहचान नहीं है, अपना चेहरा ही तुमने अब तक नहीं देखा, तुम अपने से ही दूर पड़ गए हो, तब जो घाव लगता है, वही घाव व्यक्ति को धार्मिक बनाता है। जिस दिन तुम जानते हो कि मैं अपने से ही दूर हो गया हूं, अपने से ही भटक गया हूं, अपना ही पता-ठिकाना नहीं मिलता है कि मैं कौन हूं, क्या हूं, कहां से हूं, कहां जा रहा हूं, जिस दिन तुम इस असहाय और संताप के क्षण में भर जाते हो, जिस दिन तुम्हारा जीवन सिर्फ एक घाव मालूम पड़ता है, उसी दिन तुम्हारे जीवन में धर्म की शुरुआत होती है। उस दिन तुम क्या करोगे? उस दिन कैसे तुम अपने को पाओगे? तो मैं तुम्हें एक बुद्ध की छोटी सी कहानी कहूं। बुद्ध एक सुबह-सुबह, जैसे तुम आज मेरी प्रतीक्षा कर रहे थे ऐसे बुद्ध के भिक्षु उनकी प्रतीक्षा कर रहे थे। बुद्ध आए, वे बैठ गए अपने वृक्ष के नीचे। लोग थोड़े चकित थे, क्योंकि हाथ में वे एक रेशम का रूमाल लिए थे। ऐसा कभी न हुआ था। वे उस रूमाल को देखते रहे और फिर उन्होंने रूमाल में पांच गांठें लगाईं। भिक्षु अवाक होकर देखते रहे कि वे क्या कर रहे हैं। गांठें लग जाने पर उन्होंने कहा कि मैं तुमसे एक सवाल पूछता हूं। वह सवाल यह है कि जब इस रूमाल में गांठ न लगी थी तब और अब जब कि गांठे लग गईं कोई फर्क है या नहीं? यह रूमाल वही है कि दूसरा? एक भिक्षु ने खड़े होकर कहा कि आप हमें व्यर्थ की उलझन में डाल रहे हैं। समझ गए हम आपकी चाल। अगर कहेंगे कि वही, तो आप कहेंगे कि पांच गांठें नई हैं ये। अगर हम कहें कि नया, तो आप कहेंगे, इसमें नया
SR No.002375
Book TitleTao Upnishad Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1995
Total Pages440
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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