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ताओ उपनिषद भाग ५
बुद्ध ने तो इस बात को उसकी आखिरी, चरम तार्किक निष्पत्ति तक पहुंचा दिया है। कथा है कि बुद्ध जब स्वर्ग के, मोक्ष के द्वार पर पहुंचे, द्वार खुला स्वागत के लिए तैयार, लेकिन बुद्ध पीठ करके खड़े हो गए। द्वारपाल ने कहा, आप भीतर आएं। बुद्ध ने कहा, यह संभव नहीं है। जब तक अंतिम व्यक्ति मुक्त न हो जाए तब तक मैं द्वार पर ही रुकुंगा।
यह तो कथा है, लेकिन बहुत गहरे अर्थों में सही है। क्योंकि अगर अस्तित्व इकट्ठा है तो एक व्यक्ति कैसे बुद्धत्व को प्राप्त होगा? अगर हम सब जुड़े हैं और द्वीप की तरह अलग-अलग नहीं हैं, महाद्वीप की तरह हैं, तो कैसे एक व्यक्ति मुक्त होगा? एक की मुक्ति सबकी मुक्ति होगी। एक अलग होता तो अलग मुक्त हो सकता था।
लाओत्से कहता है कि तुम जिस दिन खिलोगे और तुम जिस दिन आधारित हो जाओगे, केंद्र को पा लोगे, तुम्हारी जड़ें पहुंच जाएंगी स्वभाव में, उस दिन तुम्ही नहीं, तुम्हारी पीढ़ी दर पीढ़ी से चल रही अबाध त्यागों की परंपरा अपनी पूर्णाहुति पर आएगी। और तुम्हारे आधार पर आने वाला भविष्य एक नई सीढ़ी को पार कर लेगा।
'व्यक्ति में उसके पालन से चरित्र प्रामाणिक होगा।' ताने-बाने की पूरी कथा लाओत्से कहता है। 'कल्टीवेटेड इन दि इंडिविजुअल, कैरेक्टर विल बैंकम जिन्यून।' .
जब कोई एक व्यक्ति अपने भीतर गहरा उतरता है और अपनी जड़ों से संबंध जोड़ लेता है और अपने स्वभाव के साथ एकरस हो जाता है, जब किसी व्यक्ति का चरित्र उसके अंतस से जगता है, तो चरित्र प्रामाणिक होता है, आथेंटिक होता है। नहीं तो पाखंड होता है। अगर एक व्यक्ति भी प्रामाणिक चरित्र को उपलब्ध हो जाता है, तो उसके आधार पर उसका परिवार प्रामाणिक क्षेत्र की तरफ बढ़ सकता है। क्योंकि हम अलग-अलग नहीं हैं। इससे विपरीत भी सही है। अगर परिवार चरित्र को उपलब्ध हुआ हो तो उसके भीतर पैदा हुआ व्यक्ति दुश्चरित्रता की तरफ जाने में बड़ी कठिनाइयां पाएगा, और चरित्र की तरफ जाने में बड़ी सुगमता पाएगा।
इस सत्य को अब पश्चिम में मनोवैज्ञानिकों ने स्वीकार किया है, एक दूसरी दिशा से। पहले जब कोई आदमी पागल, विक्षिप्त, मानसिक रोग-ग्रस्त हो जाता था तो हम उसका इलाज करते थे। फिर धीरे-धीरे मनोवैज्ञानिकों को समझ में आना शुरू हुआ कि इस व्यक्ति के इलाज से कुछ भी न होगा जब तक इसका परिवार न बदले। क्योंकि यह अनुभव में आया कि व्यक्ति को अगर अस्पताल में रखो, वह ठीक हो जाता है। घर भेज दो, फिर महीने, दो महीने में वापस बीमारी शुरू हो जाती है। तो निरंतर अध्ययन करने से पता चला कि व्यक्ति तो एक हिस्सा है परिवार का, और जब तक पूरे परिवार में कोई गहरा रोग न हो मानसिक तब तक यह व्यक्ति रुग्ण नहीं हो सकता। लेकिन पूरा परिवार सामान्य मालूम पड़ता है; कोई पागल नहीं है दूसरा आदमी।
तब इस बात की खोज की गई कि यह कारण क्या है? तो पता चला कि जैसे परिवार में अगर दस आदमी हैं तो जो सबसे ज्यादा कमजोर है वह सबसे पहले पूरे परिवार के पागलपन को प्रकट करने का आधार बन जाएगा-जो सबसे ज्यादा कमजोर है। जैसे यह मकान गिरे तो इसमें सबसे पहले वह खंभा गिरेगा जो सबसे ज्यादा कमजोर है। परिवार इकट्ठा है; उसमें एक व्यक्ति गिरेगा जो सबसे ज्यादा कमजोर है।।
इसलिए अक्सर छोटे बच्चे पागल हो जाएंगे, या पैदाइश से ही विक्षिप्त होंगे। या पैदाइश से ही उनके मन में कुछ गड़बड़ होगी, व्यक्तित्व में कुछ गड़बड़ होगी। क्योंकि वे कमजोर हैं। या स्त्रियों पर निकलेगा; स्त्रियां पागल होंगी। क्योंकि वे कमजोर हैं। पुरुषों पर आते-आते देर लगती है। पहले बच्चे पागल होते हैं। अगर बच्चे न हों तो स्त्रियां पागल होती हैं। तब पुरुषों तक बात आती है। क्योंकि जो जितना कमजोर है, उतना ही संभव है कि रोग उससे प्रकट हो।
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