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ताओ उपनिषद भाग ५
बुद्ध को कोई गाली देता है तो वे कहते हैं, तुम जरा देर से आए; थोड़े पहले आना था। अब तो मुश्किल हो गई। अब तुम मुझे क्रोधित न कर पाओगे। और तुम पर मुझे बड़ी दया आती है, क्योंकि तुम खाली हाथ लौटोगे।
और तुम कितनी धारणाएं लेकर आए होगे कि अपमान करूंगा, गाली दूंगा, नीचा दिखाऊंगा, और तुम असफल लौटोगे। और मैं कुछ भी तुम्हें सहायता नहीं कर सकता; तुम जरा देर से आए, दस साल पहले आना था। तब मैं भी क्रोधित होता; तुमने गाली दी, इससे वजनी गाली मैं तुम्हें देता। तब मैं नासमझ था। तब जीवन-ऊर्जा को मैं ऐसे ही फेंक रहा था। ठीक-ठीक पता नहीं था कि इससे क्या खरीदा जा सकता है।
जिस जीवन से तुम परमात्मा खरीद सकते हो उस जीवन से तुम क्या खरीद रहे हो? उसे तुम क्षुद्र के साथ व्यर्थ ही खो रहे हो। तुम गंवा रहे हो, कमा नहीं रहे हो। और बड़ी उलटी दुनिया है। संसारी जो गंवाते हैं, लोग उन्हें समझते हैं, कमा रहे हैं; संन्यासी जो कमाते हैं, लोग समझते हैं, गंवा रहे हैं। एक ही कमाई है कि तुम्हारा जीवन उस परम संगीत से भर जाए जिसका सारा साज-सामान तुम्हारे भीतर मौजूद है, जिसे तुम जन्म के साथ लेकर आए हो। वह गीत तुम गाकर जाना—एक ही कमाई है। वह संगीत तुम बजा कर जाना—एक ही कमाई है। तब तुम हंसते हुए जाओगे। तब तुम कहते हुए जाओगे कबीर के साथ कि जिस मरने से जग डरे मेरो मन आनंद; कब मरिहों कब भेटिहों पूरन परमानंद। तब मृत्यु का स्वागत भी तुम नृत्य से करोगे। अभी तुमने जीवन का स्वागत भी क्रोध से किया है, लोभ से किया है, क्षुद्रताओं से किया है, बीमारियों से किया है। ये दो आयाम हैं।
'जो दृढ़ता से स्थापित है, आसानी से डिगाया नहीं जा सकता।'
तुम डिग जाते हो। दूसरे को कसूर मत देना; इतना ही समझना कि तुम दृढ़ता से स्थापित नहीं हो। जब कोई गाली दे और तुम क्रोध से भर जाओ तब यह मत समझना कि दूसरे ने तुम्हें कोई नुकसान पहुंचाया; इतना ही जानना कि तुम्हारा चरित्र दृढ़ता से स्थापित नहीं है। और इस आदमी को धन्यवाद देना कि तेरी बड़ी कृपा है कि तूने बता दिया कि कितना गहरा हमारा चरित्र है। हमें पता ही न चलता अकेले रहते तो। अकेले रहते तो हमें कैसे पता चलता कि हम दृढ़ता से स्थापित नहीं हैं।
अक्सर ऐसा होता है कि जो लोग घर-द्वार छोड़ कर हिमालय चले जाते हैं वे वहां समझने लगते हैं कि उनको चरित्र उपलब्ध हो गया। क्योंकि वहां कोई हिलाने वाला नहीं है। और जब वापस लौटते हैं, तत्क्षण हिल जाता है। फिर डरने लगते हैं तुम्हारे पास आने से, क्योंकि वे समझते हैं कि तुम उनके पतन का कारण हो। तुम उनके पतन का कारण नहीं, तुम केवल परीक्षा हो। तुम्हारे पास आकर कसौटी मिल जाती है, पहचान हो जाती है कि कितना गहरा है।
एक संन्यासी तीस वर्षों तक हिमालय में रहा। आश्वस्त हो गया कि सब ठीक है। न क्रोध, न लोभ, न मोह, न काम, शांत हो गया हूं। अब क्या डर रहा? तो कुंभ का मेला था, नीचे उतरा कि अब तो कोई भय नहीं संसार से। मेले में आया। किसी आदमी का पैर पर पैर पड़ गया। भीड़ थी, धक्कम-धुक्का था, पैर पर पैर पड़ गया। एक क्षण में तीस साल हिमालय के खो गए। एक-क्षण न लगा, तीस साल ऐसे पुछ गए जैसे पानी पर खिंची लकीर मिट जाती है। उचक कर गर्दन पकड़ ली उस आदमी की और कहा कि तुमने समझा क्या है? अंधा है? देख कर नहीं चलता! तब होश आया कि यह मैं क्या कर रहा हूं। पर वह संन्यासी ईमानदार आदमी रहा होगा। वह वापस हिमालय न गया। उसने कहा, इस हिमालय का क्या मूल्य है? भीड़ में ही रहूंगा अब, अब यहीं साधना है; क्योंकि हिमालय में तीस साल साधा और भ्रांति पैदा हो गई कि सध गया। और इधर भीड़ ने एक क्षण में मिटा दिया।
भीड़ का कोई कसूर नहीं है। कोई दृढ़ता के आधार न थे। समाज में ही साधना, भीड़ में ही साधना, संसार में ही रहते हुए साधना। क्योंकि जहां निरंतर कसौटी हो रही है वहीं तुम जांच पाओगे कि दृढ़ता गहरी हो रही है या नहीं, जड़ें उपलब्ध हो रही हैं या नहीं। मत छोड़ना पत्नी को, मत छोड़ना बच्चों को, मत छोड़ना दुकान-बाजार को। जहां
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