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धर्म है समय के स्वास्थ्य की खोज
बोध आने में बाधा पड़ रही है, क्योंकि तुम पहले ही से दुश्मनी लिए बैठे हो। अब जिस आदमी ने पहले ही से आटे से दुश्मनी बांध ली, वह आकर बैठेगा तो पीठ करके बैठेगा आटे की तरफ। दुश्मन को क्या देखना? तुमने जीवन में जो भी ऊर्जाएं हैं उनके साथ दुश्मनी समझ ली है। छोड़ो दुश्मनी। समझ को पकड़ो। पहले पहचानो, निंदा मत करो। क्योंकि निंदा जो करेगा वह पहचान न पाएगा। कहीं हम अपने शत्रु को पहचान सकते हैं? जिसका हमारे मन में विरोध है उसे हम पहचानना ही नहीं चाहते; उसे हम चाहते हैं कि वह हो ही न। पहचान का क्या सवाल है? वह रास्ते पर मिल जाए तो हम आंखें नीचे झुका कर गुजर जाते हैं। वह हाथ बढ़ाए तो हम पीठ फेर लेते हैं।
नहीं, तुम जीवन की ऊर्जाओं से शत्रुता मत बांधना। क्योंकि जीवन की ऊर्जाएं जीवन की ऊर्जाएं हैं। कुछ भी निरर्थक नहीं है। इस अस्तित्व में एक छोटा सा तिनका भी निरर्थक नहीं है। सार्थकता तुम्हें पता न हो, यह बात तुम्हारी रही। समझ बढ़ाओ, सार्थकता का पता चलेगा। लड़ो मत, जागो।
जैसे-जैसे तुम जागोगे वैसे-वैसे तुम चकित होओगे। इधर तुम जागते हो, इधर क्रोध क्षीण होने लगता है-बिना कुछ किए, बिना छुए। इधर तुम्हारा जागरण बढ़ता है, इधर तुम पाते हो, क्रोध असंभव होने लगा। क्योंकि जो ऊर्जा तुम्हें जगा रही है वह ऊर्जा भी तो क्रोध से ही ली जाएगी, वह ऊर्जा लोभ से ली जाएगी। जो व्यक्ति ध्यान करने लगता है, धन की तरफ जाने की उसकी दौड़ अपने आप कम हो जाती है। क्योंकि अब बड़ा धन उपलब्ध होने लगा, छोटी दौड़ छूटने लगी। जब हीरे मिलते हों तो कंकड़-पत्थर कौन इकट्ठे करता है? तुम छोटे से मत लड़ो, तुम बड़े को जगाओ। छुद्र से लड़े कि भटक जाओगे। विराट से जुड़ो; छोटा अपने आप विराट में लीन हो जाएगा। और विराट में लीन होकर छोटा भी विराट हो जाता है।
बुद्ध में भी क्रोध था, जैसा तुममें है; विराट में लीन होकर क्रोध करुणा बन गया। क्रोध का अर्थ है : दूसरे को विनष्ट करने की आकांक्षा। करुणा का अर्थ है: दूसरा फले-फूले, ऐसी आकांक्षा। बात वही है। दूसरा मिटे; दूसरा बने। वही ऊर्जा है, यात्रा बदल गई। लोभ का अर्थ है छीनना, और दान का अर्थ है देना। बात वही है। वे ही हाथ छीनते हैं, वे ही हाथ देते हैं। दूसरों से छीना जाता है, दूसरों को दिया जाता है। वे ही चीजें छीनी जाती हैं, वे ही चीजें दी जाती हैं। कुछ भी फर्क नहीं है। यात्रा वही है। सीढ़ी वही है, जिससे तुम नीचे आते हो और जिससे तुम ऊपर जाते हो। स्वर्ग और नरक तुम्हारी दिशाएं हैं; सीढ़ी तो एक ही लगी है।
जितनी तुम्हारी समझ होगी जीवन की ऊर्जाओं की, वैसे-वैसे तुम धन्यभाग अपना समझोगे। वैसे-वैसे तुम परमात्मा के अनुगृहीत होओगे कि कितना दिया है! और कैसा संगीत संभव था! घर में ही वाद्य रखा था; तुम बजाना न जान पाए। तुम नाच न सके; आकाश था, फूल खिले थे, पक्षी गीत गा रहे थे। तुम्हारे पैर नाच न पाए, तुम इस पूरी धुन को समझ न पाए कि क्या हो रहा है। अस्तित्व एक उत्सव है। जैसे-जैसे तुम्हारा बोध बढ़ेगा वैसे-वैसे तुम्हें चारों तरफ उत्सव दिखाई पड़ेगा। अस्तित्व दरिद्र नहीं है, बड़ा समृद्ध है। उसकी समृद्धि का कोई अंत नहीं है। फूल चुकते नहीं हैं, कितने-कितने अरबों वर्ष से खिलते हैं। चांद-तारे चुकते नहीं, कितने-कितने अरबों वर्ष से रोशनी बांटते हैं। जीवन का न कोई आदि है, न कोई अंत। उसी से तुम जुड़े हो।
इतने विराट से जुड़े हो। लेकिन तुम्हारी नजर क्षुद्र पर लगी है।
नजर को लौटाओ। चलो उलटे-गंगोत्री की तरफ, स्रोत की तरफ, भीतर की तरफ। करो प्रतिक्रमण। और तब तुम स्वभाव में प्रतिष्ठित हो जाओगे। और ऐसा चरित्र उपलब्ध होता है जो फिर डिगाया नहीं जा सकता। जिसका क्रोध करुणा बन गया, तुम उसे क्रोधित कैसे करोगे? क्रोध वहां बचा नहीं। और जिसने करुणा जान ली, जिसने क्रोध का इतना परम संगीत जान लिया, तुम उसे गाली दोगे तो वह मस्कराएगा। क्योंकि जिसने अपनी क्रोध की ऊर्जा से करुणा की संपदा पा ली, अब उस ऊर्जा को वह क्रोध में व्यय न करेगा।
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