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ताओ उपनिषद भाग ५
वात्स्यायन ने, जिसने सबसे पहले जगत में कामशास्त्र पर विचार किया, उसने लिखा है कि प्रेम तब तक अधूरा है जब तक प्रेमी एक-दूसरे को काटें न, लोचें न। तो प्रेम की अनेक बातों में नखदंश और प्रेम की अनेक बातों में दांतों के चिह्न प्रेमी पर न छूट जाएं तब तक प्रेम अधूरा है। लेकिन प्रेम में तुम काटना चाहोगे? कि लोंचना चाहोगे? यद्यपि प्रेमी यह करते हैं।
निश्चित ही, यह जहर कहीं और से आ रहा है। अन्यथा प्रेम में तो आदमी अति कोमल होगा। काटने की बात ही बेहूदी है। पशु भी नहीं करते प्रेम में काटना या लोंचना तो आदमी क्यों करेगा? ।
लेकिन आदमी करता है। और ऐसी घटनाएं घटी हैं कि कभी-कभी प्रेमियों ने एक-दूसरे की हत्या कर दी-प्रेम में। ऐसे कुछ मुकदमे दुनिया में चले हैं जब कि पहली ही सुहागरात, पति ने गर्दन दबा दी पत्नी की। और वह बड़े प्रेम में था। और वह खुद भी भरोसा न कर सका कि क्या हो गया। और अदालत में वह कहता है तो कोई उसकी मानता नहीं! वह कहता है कि मैं तो इतना प्रेम करता था, जार-जार रोता हूं कि मुझसे क्या हो गया। यह किस प्रेत ने मुझे पकड़ लिया! किस शैतान ने मुझे पकड़ लिया! मैं आविष्ट हो गया; मैं मैं नहीं था। यह मुझसे हो नहीं सकता, क्योंकि अपनी प्रेयसी को मैं क्यों मारूंगा? और कोई कारण नहीं मारने का। और अभी तो पहली ही रात थी। और कितने दिन से आशा संजोई थी।
लेकिन अगर तुम क्रोध को इकट्ठा करते जाओ तो वह किसी भी क्षण बह सकता है। और प्रेम का क्षण बड़े खुलने का क्षण है। क्योंकि प्रेम के क्षण में तुम सब खिड़की-दरवाजे खोल देते हो। अगर क्रोध बहुत भरा हो तो बह जाएगा। तुम करोगे क्या? घड़े में जो भरा है वह बाहर आ जाएगा, अगर सब खुल जाए। तो प्रेम में तुम अपने को सम्हाले नहीं रख सकते, नहीं तो प्रेम न कर पाओगे। और सम्हालना छोड़ा कि जो तुम्हारे भीतर भरा है वही बाहर आ जाएगा।
तो क्रोध के साथ एक तो रास्ता है कि तुम उसे दबाओ, भीतर-भीतर सरकाते जाओ; तुम्हारे अचेतन में लबालब क्रोध हो जाए। तब तुम क्रोधी व्यक्ति हो जाओगे। भला तुम्हारा क्रोध का कृत्य हो या न हो, तुम्हारे व्यक्तित्व में क्रोध का जहर होगा। तुम्हारे साधु-संन्यासियों में तुम ऐसे आदमियों को पाओगे। दुर्वासा तुम्हें सब जगह मिल जाएंगे। दुर्वासा ऋषि बड़े रिप्रेजेंटेटिव, प्रतिनिधि ऋषि हैं। उन जैसे ऋषि तुम्हें जगह-जगह मिलेंगे। छोटी सी बात उन्हें आगबबूला कर देगी। बात का बतंगड़ हो जाएगा। बहुत क्षुद्र सी बात उन्हें क्रोध से भर देगी। वे विनाश को उतारू हो जाएंगे, अभिशाप उनसे बहने लगेगा। क्रोध को अगर दबाया तो तुम्हारा अचेतन जहरीला हो जाएगा।
और यही पहले तरह का चरित्र करता है; क्रोध को, काम को, लोभ को, मोह को दबाता है। कचरा भीतर भरता है। और जितना यह कचरा भीतर भरता जाता है, तुम्हारी आत्मा तुमसे उतनी ही दूर होती चली जाती है। फिर तुम भीतर जाने में भी डरने लगोगे। क्योंकि भीतर गए तो यही कचरा पहले मिलेगा। तब तुम बाहर ही बाहर रहोगे, घर के बाहर ही घूमोगे, पोर्च में ही विश्राम करोगे। उससे भीतर जाने की तुम्हारी हिम्मत टूट जाएगी।
आखिर इतना तुम सुनते हो, सारी दुनिया के बुद्ध पुरुष कहते हैं, भीतर जाओ, जानो अपने को, आत्मज्ञान, अपनी पहचान; तुम जाते नहीं। तुम सुन लेते हो। कहते हो, ठीक है, जाएंगे कभी; लेकिन जाते नहीं। तुम जानते हो कि भीतर गए तो ब्रह्म से मिलने की तो कोई संभावना नहीं दिखाई पड़ती, मिलेगा यह कचरा जो तुमने दबाया है। और जब भी कभी तुम भीतर गए हो थोड़े तो यही कचरा मिला है। इसीलिए तो तुम अकेले तक रहने में डरते हो। कोई दूसरा रहे तो मुखौटा लगा रहता है। दूसरे को दिखाने के लिए तुम अभिनय करते रहते हो। जब तुम बिलकुल अकेले रहते हो, मुखौटा उतर जाता है। जब दूसरा है ही नहीं तो दिखाना किसको? तब अपने से संबंध होने शुरू हो जाते हैं। और अपने से तुम बड़े भयभीत हो। तुम जानते हो, कुछ उपद्रव हो जाएगा।
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