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धर्म समय के स्वास्थ्य की योज
अशांति और क्या है? पाखंड के बीज अशांति लाते हैं। संताप और क्या है? कि तुम इस तरह खिंचे हो दो चीजों में कि न इस तरफ हो पाते हो, न उस तरफ हो पाते हो। ऊपर से तुम्हें लगता है कि क्रोध बुरा है, क्रोध करना नहीं; और भीतर क्रोध उबलता है। तब तुम एक मुखौटा ओढ़े लेते हो, मुंह छिपा लेते हो, झूठे चेहरे मुंह पर ढांक लेते हो। पर तुम किसको धोखा दे रहे हो? दूसरे को चाहे तुम देने में सफल भी हो जाओ, अपनी ही अंतरात्मा के समक्ष तो तुम नग्न ही रहोगे। वहां तो कोई मुखौटे काम न देंगे। और वहां तो तुम जानोगे ही कि असलियत क्या है। सत्य इस तरह के मुखौटों से कभी उपलब्ध नहीं हो सकता। और इनको जरा में हिलाया जा सकता है।
लाओत्से कहता है कि एक ऐसा चरित्र भी है जिसे हिलाना आसान नहीं। उस चरित्र की बुनियाद तुम्हारे स्वभाव में है; चालाकी में नहीं, तुम्हारी प्रज्ञा में है; गणित में नहीं, तुम्हारी अंतस चेतना में है। होशियारी में नहीं; होशियारी को बहुत होशियारी मत समझना। होशियारी अंत में बड़ी नासमझी सिद्ध होती है। होशियारी में नहीं, होश में असली चरित्र की बुनियाद रखी जाती है। फर्क को समझ लो। फिर हमें इस सूत्र को समझना आसान हो जाएगा।
क्रोध तुम्हारे जीवन में है-एक तथ्य। इस क्रोध के दो उपाय हो सकते हैं। एक तो है कि तुम इसे दबा दो, छिपा दो अपने ही भीतर। लेकिन जो तुम्हारे भीतर छिपा है वह मिट नहीं गया है। और जो तुम्हारे भीतर छिपा है उसे रोज-रोज छिपाना पड़ेगा; क्योंकि वह रोज-रोज बाहर आना चाहेगा। और जिसे तुम भरते ही जाओगे भीतर वह धीरे-धीरे तुम्हारे ऊपर से बहने लगेगा। क्योंकि भरने की भी एक सीमा है। जगह भी सीमित है तुम्हारे भीतर।
इसलिए एक बहुत अनूठी बात समझ लेना। मनोवैज्ञानिक कहते हैं कि जो लोग रोज-रोज क्रोध कर लेते हैं और उसे दबाते नहीं, इनमें से कभी शायद ही कोई आदमी हत्या करता है। शायद ही। असंभव है। लेकिन जो लोग क्रोध को दबाते रहते हैं इनमें से अधिक लोग हत्या करते हैं। क्योंकि इतना क्रोध इकट्ठा हो जाता है कि फिर छोटी-मोटी घटना से तृप्त नहीं होता, फिर हत्या ही चाहिए। जब तक तुम किसी की गर्दन ही न तोड़ दोगे, सिर ही न फोड़ दोगे, लहूलुहान ही न कर दोगे, जब तक तुम जीवन को सामने ही अपने तड़पते हुए, मिटते हुए न देख लोगे, तब तक तुम्हारी आत्मा को शांति न मिलेगी।
अगर कोई मुझसे पूछे कि क्रोध करना ही हो और बचने का कोई उपाय ही न हो तो क्या करना, तो मैं उससे कहूंगा, जब भी करना हो कर लेना, उसे इकट्ठा मत करना। छोटे बच्चों जैसा करना; क्रोध आए जब, पूरा निकाल लेना। इसलिए छोटे बच्चे घड़ी भर बाद हंस रहे हैं; जिस बच्चे से घड़ी भर पहले लड़े थे और कहा था कि अब जिंदगी भर बोलेंगे नहीं, खत्म हो गई बात, अब तुम्हारी शक्ल न देखेंगे, घड़ी भर बाद फिर दोनों पास बैठे हैं और गपशप कर रहे हैं। जैसे वह बात आई और गई, जैसे उससे कोई जीवन का लेना-देना नहीं है। एक झोंका था हवा का, आया और गया। और झोंका साफ कर गया, धूल-धवांस झाड़ गया।
अगर क्रोध करना ही हो तो बच्चों जैसा करना-कर लेना और इकट्ठा मत करना। क्योंकि इकट्ठा करने वाला ही मुसीबत में पड़ेगा। वह हत्या करेगा। वह कोई भयानक अपराध करेगा। जब क्रोध ज्यादा हो जाएगा तो छोटे-मोटे कृत्य से तृप्त न होगा; अकारण बहेगा। जो आदमी रोज-रोज क्रोध कर लेता है, जब जरूरत होती है तब क्रोध कर लेता है, वह आदमी क्रोधी नहीं है। उसका कोई कृत्य क्रोध का होता है, लेकिन बस कृत्य ही होता है। चौबीस घंटे वह आदमी हलका-फुलका होता है। और जो आदमी क्रोध नहीं करता, इकट्ठा करता है, उसके कृत्य में क्रोध नहीं होता, उसके व्यक्तित्व में क्रोध हो जाता है। जहर सबमें फैल जाता है; वह चौबीस घंटे क्रोधी होता है। उसके चौबीस घंटे में क्रोध की छाया पड़ती रहती है। वह सामान भी रखेगा तो जोर से रखेगा; दरवाजा खोलेगा तो जोर से खोलेगा। जूते उतारेगा तो ऐसे कि जैसे दुश्मन को फेंक रहा हो। वह बात करेगा तो उसकी बात में जहर होगा। वह देखेगा तो उसकी आंखों में कांटे होंगे। वह प्रेम भी करेगा तो उसके प्रेम में भी हिंसा होगी।
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