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________________ ताओ उपनिषद भाग ५ 124 आग लगी है, तब तुम समग्रता से समझते हो। जब मैं कहता हूं, यह जीवन सांप जैसा है, इससे बचो, तब तुम बुद्धि से समझते हो। लेकिन जब सांप रास्ते पर मिल जाता है तब ! जिस दिन तुम इस तरह समझोगे धर्म को भी, उसी दिन तुमने समझा । फिर तुम्हारी समझ और करने में फर्क न होगा। समझ ही करना है। समझ मुक्ति है। अगर तुमने समझ लिया कि क्रोध जहर है तो क्या तुम मुझसे पूछोगे कि अब क्रोध को कैसे रोकें? अगर पूछते हो तो साफ है, अभी भी समझे नहीं; अभी भी लगाव बना है; अभी भी तुम सोचते हो कि हां, कहते हैं लोग कि जहर है; लेकिन यह तुम्हारा अनुभव नहीं बना है। और अभी भी तुम्हें रस है उसमें और क्रोध में अभी भी तुमने कुछ नियोजित किया हुआ है, अभी भी तुम्हारा इनवेस्टमेंट है। अभी भी तुम मानते हो कि किन्हीं - किन्हीं समय में क्रोध करने की जरूरत है। अब बच्चा कुछ गलती कर रहा हो, क्रोध कैसे न करें ? कि अगर क्रोध न करें तो पत्नी सुनती ही नहीं ! और अगर क्रोध न करेंगे तो किसी का सुधार कैसे होगा ? अभी क्रोध से तुम्हारे लगाव भीतर बने हैं। अभी क्रोध का जहर तुम्हें दिखाई नहीं पड़ा। क्योंकि अगर जहर दिखाई पड़ जाए तो तुम यह न कहोगे कि जहर तो है माना, लेकिन बच्चे को सुधारने के लिए थोड़ा पिलाना पड़ेगा। हर कोई पिलाता है सुधारने के लिए? और जहर से कभी किसी ने किसी को सुधारा? क्रोध से कभी कोई बच्चा सुधरा है? तुम्हें पता है? बिगड़ सकता है, क्रोध से कभी कोई बच्चा नहीं सुधरा । क्रोध से कोई व्यवस्था बनी है ? बिगड़ सकती है; बनने की क्या संभावना है? और अगर क्रोध से कोई व्यवस्था बनेगी भी तो धोखा होगा, झूठ होगा। तुम्हारी पत्नी अगर तुम्हारे क्रोध के कारण शांत भी रहेगी तो वह शांति शांति नहीं हो सकती; उसके भीतर आग जलती रहेगी। और उस शांति से प्रेम का कोई जन्म नहीं हो सकता। वह तुम्हारी गुलाम हो जाएगी, लेकिन तुम्हारी प्रेयसी न हो पाएगी। और गुलाम घृणा करता है, प्रेम नहीं। अगर तुमने किसी तरह जबर्दस्ती क्रोध के आधार पर कुछ कर भी लिया तो यह बहुत ही अस्थायी है। और इसके भीतर इसका विरोध मौजूद है जो इसे तोड़ देगा। तुमने एक ऐसा भवन बनाया जिसकी कोई बुनियाद नहीं है, जो रेत पर खड़ा है, और किसी भी दिन गिरेगा। इससे तो बेहतर था तुम खुले आकाश के नीचे सो जाते; कम से कम खतरा तो न था । यह महल खतरनाक है। यह गिरेगा। और इसके गिरने में तुम मिटोगे। क्रोध को पूरा देखो। तब क्रोध को देखने से तुम्हें एक समझ आएगी। कामवासना को पूरा देखो, जानो, पहचानो। जल्दी कुछ नहीं है। किसी की मान कर मत चल पड़ो। तब तुम पाओगे कि यह तो व्यर्थ है। यह इतनी व्यर्थ है कि इसकी व्यर्थता ही काफी है इससे मुक्ति के लिए। अगर अतिरिक्त कुछ करना पड़े, कि जाकर मंदिर में कसम पड़े कि अब मैं ब्रह्मचर्य का व्रत लेता हूं, तो वह तुम्हारा कसम लेना ही बता रहा है कि तुम अभी समझ नहीं पाए, और समझ की जो कमी है वह तुम व्रत से पूरा कर रहे हो। जिसने जान लिया, वह व्रत लेगा ब्रह्मचर्य का ? जिसने जान लिया, बात खतम हो गई। वह मंदिर जाएगा? वह किसी के सामने घोषणा करेगा ? वह घोषणा और मंदिर और किसी गुरु के सामने व्रत लेना सिर्फ तरकीब है। वह तरकीब है कि अब चार आदमियों के सामने इज्जत का सवाल हो गया। तो अब इज्जत के नाम से किसी तरह अपने को रोकेंगे। लेकिन ब्रह्मचर्य कहीं इज्जत के कारण आता है? ब्रह्मचर्य समझ से आता है। ब्रह्मचर्य कहीं अहंकार, प्रतिष्ठा — कि अब लोग हमको ब्रह्मचारी मानते हैं इसलिए अब कैसे ब्रह्मचर्य को छोड़ें- इससे आता है ? ऐसा ब्रह्मचर्य दो कौड़ी का है; आ ही नहीं सकता। तब तुम रास्ते निकाल लोगे। तब तुम प्रतिष्ठा को भी बचाओगे, छिपे रास्ते भी निकाल लोगे ब्रह्मचर्य से बचने के। तब तुम्हारे जीवन में पाखंड होगा। और पाखंड इस जगत में सबसे बड़ा पतन है; पाप नहीं । पापी भी सीधा - साफ है। पाखंडी इस जगत में सबसे ज्यादा कठिन अवस्था में है। उसके जीवन में बड़ी जटिलता है। दिखाता कुछ है; करता कुछ है । कहता कुछ है; होता कुछ है । उसका जीवन बिलकुल अस्तव्यस्त है।
SR No.002375
Book TitleTao Upnishad Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1995
Total Pages440
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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