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चाँथा प्रश्न : माना जाता है कि मनुष्य विकास का श्रेष्ठतम बिंदु हैं और मनुष्य ही विकसित ठोकर भगवान छो जाता है। तब ताओ में प्रवेश आगे का विकास हैं या पीछे लॉटना ?
ताओ उपनिषद भाग ५
दोनों। पीछे लौटना ही आगे का विकास है। पीछे जाना ही आगे जाना है। क्योंकि पीछे मूल स्रोत है। जहां से तुम आए हो, वही पहुंच जाना अंतिम लक्ष्य है। क्योंकि मूल उदगम ही आखिरी मंजिल है। तुम वर्तुल बन जाओगे, तभी तुम पूर्ण होओगे। तुम एक वर्तुल खींचते हो; तो जहां से तुम शुरू करते हो, जिस बिंदु से वर्तुल को, वहीं वर्तुल वापस लौट जाता है। और वर्तुल इस जगत में पूर्णता का चिह्न है। इसलिए तो हमने वर्तुल को शून्य का भी चिह्न बनाया है। शून्य और पूर्ण एक ही चीज को कहने के दो ढंग हैं। तुम्हें वहीं लौट जाना है जहां से तुम आए हो। और ध्यान रखना, जब तुम लौटोगे तो तुम वही न रहोगे जैसे कि तुम तब थे जब आए। क्योंकि यह सारी यात्रा, यह यात्रा-पथ तुम्हें प्रौढ़ कर देगा, तुम्हें जगा देगा, होश से भर देगा।
संसार से गुजरना है, और पहुंच जाना है वापस मूल स्रोत पर। इसलिए तो कहते हैं कि जब कोई दुबारा बच्चा हो जाता है फिर से बुढ़ापे में, जब कभी बूढ़ा फिर बालक जैसा हो जाता है, तो संतत्व का उदय हुआ। फिर से वर्तुल पूरा हो गया। अगर तुम बुढ़ापे तक चालाक रहे, जैसा कि अक्सर होता है, तो वर्तुल पूरा नहीं हुआ। तुम फिर-फिर फेंके जाओगे, तुम स्वीकार नहीं किए जा सकते। तुम अभी योग्य नहीं हुए। तुम आधे हो। जब कोई बुढ़ापा
आते-आते फिर इतना ही सरल हो जाता है जैसे छोटा बच्चा; इसी को हम संतत्व कहते हैं। इसी को लाओत्से परम उपलब्धि कहता है। बच्चे के पास सब है, सिर्फ होश नहीं है। होश अनुभव से आएगा। अगर तुम फिर से होशपूर्वक बालक हो गए तो सब पा लिया।
तो पीछे लौटना है, वही आगे जाना है; मूल को पाना है, क्योंकि वही अंत है। स्वभाव को उपलब्ध करना है। स्वभाव था ही तुम्हारे पास, लेकिन तब तुम होशपूर्ण न थे। होशपूर्वक पुनः स्वभाव को उपलब्ध कर लेना है। कहावत है कि जब कोई व्यक्ति दूसरे मुल्कों में जाता है और वापस लौटता है अपने देश, तभी अपने देश को ठीक से समझ पाता है। क्योंकि पहले अपना ही देश था, तौलने का कोई उपाय न था; ठीक है कि गलत, अच्छा है कि बुरा, सुंदर है कि कुरूप, नैतिक कि अनैतिक; कुछ भी पता नहीं चलता था। क्योंकि तुलना ही न थी। जब कोई व्यक्ति अनेक देशों में भटकता है-यात्रा का वही तो फायदा है और फिर घर वापस लौटता है, तभी अपने देश को ठीक से पहचान पाता है।
ठीक यही यात्रा संसार है। इसीलिए तो हम उसे आवागमन कहते हैं। वह यात्रा है। और जब तुम अपने देश वापस लौटोगे...। जैसे मानसरोवर से हंस आता है; भटकता है अनेक-अनेक स्थानों में, और अनेक स्थानों में भटक-भटक कर उसे याद आनी शुरू होती है मानसरोवर की, घर की याद आती है; और जब वापस मानसरोवर पहुंचता है, तो तुम जानते हो उसका आनंद! इतनी अशुद्धियों से गुजरकर, इतने अशुद्ध वातावरणों से गुजरकर, इतनी धूल-धवांस और व्यर्थ की दुनिया से गुजर कर पहली दफा मानसरोवर की शुद्धि, निर्मलता, निर्दोष वातावरण, मानसरोवर का महासुख पहली दफा उसकी समझ में आता है।
कबीर कहते हैं बार-बार ः चल हंसा वा देश! अपने घर लौट चल, उस देश लौट चल जहां से हम आए हैं। अब बहुत हो गई यात्रा, देख लिया सब, पाया कुछ भी नहीं; अब अपने घर लौट चलें।।
यह घर लौटना यद्यपि उसी घर में लौटना है जहां से तुम आए, लेकिन बड़ा नया है। क्योंकि तुम नए हो गए; तुम्हारे अनुभव ने तुम्हें निखारा। पीछे लौटना ही आगे जाना है। और आगे जाने का एक ही उपाय है कि तुम पीछे लौटो। स्वभाव में पहुंच जाना ही मनुष्य का चरम उत्कर्ष है। वही परमात्मा हो जाना है।
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