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________________ संगठन, संप्रदाय, समृद्धि, समझ और सुरक्षा जो आदमी भाग जाएगा आग में उतरने से वह भी वंचित रह जाएगा; जो आग में ही पड़ा रहेगा वह भी वंचित रह गया। आग में जाना जरूरी है और निकलना जरूरी है। तब तुम आग का पूरा लाभ ले पाओगे। वासनाएं अग्नि की तरह हैं; वे तुम्हें निखारने के लिए हैं। उनसे गुजर कर तुम कुंदन बनोगे। स्वच्छ होगा तुम्हारा स्वर्ण; तुम शुद्ध होओगे। कोई वासना बुरी नहीं है। भागे, तो मुश्किल में पड़ोगे; अटक गए, तो मुश्किल में पड़ोगे। बिना अटके गए और निकल आए, वही तो कला है। काजल की कोठरी में जाना जरूरी है, लेकिन काजल की कोठरी में रह जाना आवश्यक नहीं है। और काजल की कोठरी से अगर तुम अपने को बचा कर निकल आए, बिना कालिख लगाए निकल आए, अगर तुम कह सके कबीर की भांति कि ज्यों की त्यों धरि दीन्हीं चदरिया, खूब जतन से ओढ़ी। कबीर तो गृहस्थ हैं। पत्नी है, बच्चा है फिर भी कह रहे हैं, खूब जतन से ओढ़ी। __ क्या मतलब है? कबीर कोई भगोड़े नहीं हैं। भगोड़ा तो चादर छोड़ कर ही भाग गया, उसने तो ओढ़ी ही नहीं। और कबीर कोई भोगी भी नहीं हैं कि चादर ओढ़े ही पड़े रहे जब तक कि चादर कफन न बन जाए। कबीर ने ओढ़ी भी, जतन से ओढ़ी, सम्हाल कर रख दी। और कहते हैं, परमात्मा को वैसी की वैसी वापस लौटा दी जैसी उसने दी थी; जरा भी मैली न होने दी। तुम्हारी देह तुम्हारी चादर है; उसे जतन से ओढ़ना। तुम्हारी वासनाएं तुम्हारी चादर हैं; उन्हें जतन से ओढ़ना। और परमात्मा का दान उनमें भी देखना। क्योंकि उनके बिना तुम कभी भी निखार को उपलब्ध न हो सकोगे। तुम्हें गलत से गुजरना ही पड़ेगा, ताकि तुम अपने ठीक को ठीक से पहचान पाओ। गलत पृष्ठभूमि है, काला ब्लैकबोर्ड है, जिसमें हम सफेद रेखा खींचते हैं। तुम्हारी वासना काला ब्लैकबोर्ड है। उस पर ही तुम्हारी आत्मा की सफेद लकीर खिंचेगी। तुम ब्लैकबोर्ड के दुश्मन मत हो जाना, नहीं तो तुम सफेद लकीर कभी खींच ही न पाओगे। वासना और आत्मा एक कंट्रास्ट है, एक विपरीतता है। तुम वासना को पृष्ठभूमि बनाओ और आत्मा को तुम बनाओ सफेद लकीर। फिर तुम धन्यवाद दे पाओगे परमात्मा को; फिर तुम यह न कहोगे कि इतनी वासनाएं हमें क्यों दी। तब तुम यह कहोगे कि तेरी बड़ी कृपा है कि तूने वासनाएं दीं, अन्यथा हम इस आत्मा को कैसे पहचानते? तूने यह जो काली रात दे दी, बड़ी तेरी कृपा है, क्योंकि बिना काली रात के ये आत्मा के तारे कैसे चमकते? हम इनको कैसे पहचानते? दिन में तो इनका पता ही नहीं चलता। अगर परमात्मा तुम्हें शुद्ध ही बना दे तो तुम्हें शुद्धि का कोई अनुभव न होगा। शुद्धि होगी, लेकिन तुम अनुभव से वंचित रह जाओगे। इसलिए परमात्मा तुम्हें शुद्ध भी बनाता है और तुम्हें अशुद्धि का अवसर भी देता है। उस अवसर से अगर तुम सम्हल कर गुजरे-सम्हल कर गुजरना ही संतत्व है; सम्हल कर गुजरना संन्यास है। भाग जाना संन्यास नहीं है, भोग संन्यास नहीं है, सम्हल कर गुजरना संन्यास है। भोग में योग को साध लेना संन्यास है। संसार में वीतरागता को बना लेना संन्यास है। ऐसे रहो संसार में कि संसार तुम्हारे भीतर न रहे। बस फिर तुम सम्हाल कर जतन से ओढ़ लोगे चादर को, लौटा दोगे धन्यवाद सहित।। और अगर तुम जीवन को लौटाते वक्त परमात्मा को धन्यवाद न दे सके तो फिर-फिर आना पड़ेगा। क्योंकि तुम प्रौढ़ न हो पाए, तुम अधकच्चे रहे। और अधकच्चा स्वीकार नहीं किया जा सकता। तुम पक जाओ, तभी तुम स्वीकार होओगे। तुम्हारा नैवेद्य तभी परमात्मा के चरणों में स्वीकार होगा, तभी तुम उसके हृदय के हिस्से बन सकोगे, जब तुम धन्यवाद देकर विदा होओगे, जब तुम मरते क्षण कह सकोगे, तेरी बड़ी अनुकंपा कि तूने शुद्धि की इतनी बड़ी संभावना दी और अशुद्धि का इतना बड़ा अवसर दिया। 121
SR No.002375
Book TitleTao Upnishad Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1995
Total Pages440
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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