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ताओ उपनिषद भाग ५
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नौ साल का बच्चा जब संन्यासी हो जाए ! और जैन संन्यासी ! क्योंकि जैन संन्यास का मतलब है कि जीवन से बड़ी गहरी खाई खोद ली, दीवार खड़ी कर ली। हिंदू संन्यासी को तो थोड़े उपाय भी हैं कि कहीं भी जाकर सिनेमा देख ले, जैन संन्यासी को कोई उपाय नहीं। क्योंकि समाज चौबीस घंटे पीछे रहता है और जांच रखता है— कहां जाते, कहां उठते, क्या करते, कैसे बैठते, कब सोते ।
तो नौ साल का बच्चा, उसके मन में नौ साल की अवस्था अटकी रह गई। तो वे मुझसे बोले कि मुझे बड़ी जिज्ञासा होती है कि क्या होता होगा अंदर ! बाहर से मैं निकलता हूं भीड़ लगी देखता हूं, कि वहां भीड़ लगी है, क्यू लगा है, जरूर अंदर कुछ... । और अंदर क्या हो रहा है, यह मुझे पता नहीं । अब यह एक छोटे बच्चे की दशा है। इसमें कुछ भी बुरा नहीं है। लेकिन यह आदमी अगर अपने भक्तों से कहेगा कि मुझे सिनेमा देखना है तो वे कहेंगे, तुम क्या कह रहे हो ? जैन मुनि होकर और सिनेमा ?
तो मैंने कहा कि ठीक, मैं तुम्हें सिनेमा भिजवा देता हूं। इसमें कोई हर्जा नहीं है, एक दफे देख कर झंझट खतम करो। एक मित्र को मैंने कहा कि इन्हें ले जाओ।
मित्र भी जैन थे। उन्होंने कहा, आप भी क्या कहते हैं? हमको भी फंसाएंगे इनके साथ ! पर वे समझदार थे, कहा कि मैं समझता हूं बात, अगर उनकी ऐसी जिज्ञासा है तो देखने में कुछ हर्जा नहीं है; एक बार देख कर छुटकारा हो जाएगा। तो उन्होंने कहा कि मैं ले जा सकता हूं, लेकिन कैनटोनमेंट एरिया में ले जाऊंगा। क्योंकि वहां मुझे कोई जानता-वानता नहीं ।
पर वहां अंग्रेजी फिल्म चलती है। जैन मुनि अंग्रेजी भी नहीं जानता। तो वह जैन मुनि ने कहा कि कोई हर्जा नहीं; कम से कम देख तो लेंगे। अंग्रेजी हो कि हिंदी हो, इससे कोई बड़ा सवाल नहीं है; देख तो लेंगे । तो वे उन्हें छिपा कर किसी तरह सिनेमा दिखा लाए।
जैन मुनि लौट कर मुझसे बोले कि मेरा मन ऐसा हलका हो गया है जैसे कि भार उतर गया है, कि कुछ भी नहीं है। पर लोगों की कतार लगी बाहर ही देखता था— भीतर क्या हो रहा होगा ? जरूर कुछ महत्वपूर्ण हो रहा होगा, रसपूर्ण हो रहा होगा। नहीं तो ये इतने लोग क्यों दीवाने हैं! यह मैं किसी से कह भी नहीं सकता था।
जब सिनेमा के संबंध में ऐसी हालत होगी तो तुम सोच सकते हो, और संबंधों में कैसी हालत होगी। नौ साल का बच्चा अगर संन्यासी गया हो, संसार छोड़ कर हट गया हो, तो जरूर सोचता होगा कि क्यों हर आदमी स्त्री के प्रेम में पड़ता है ? क्या होता होगा? और उसके भीतर भी कामवासना की ऊर्जा है, जो उसकी छाती में धक्के मारती रहेगी। क्योंकि उसका शरीर भी वैसे ही निर्मित हुआ है, जैसे और सब शरीर हैं। उसके शरीर में भी वैसे ही काम - ऊर्जा बनती है रोज, जैसे सबके शरीरों में बनती है। वह विक्षिप्त होगा, वह भीतर ही भीतर परेशान होगा। लेकिन वह किसी से कह भी नहीं सकता। और जितना परेशान होगा उतना ही सुबह अपने प्रवचन में मंदिर में ब्रह्मचर्य का समर्थन करेगा। यह वीसियस सर्किल है, यह उसमें दुष्ट चक्र है। वह उतना ही कामवासना की निंदा करेगा। क्योंकि उसको लगेगा, यह कामवासना मुझे डांवाडोल कर रही है, डिगा रही है।
जब मैं संभोग से समाधि पर बोला तो सारे मुल्क में भगोड़ों ने उसका विरोध किया। जैन मुनि उसमें सबसे ज्यादा आगे थे कि यह मैं क्या कह रहा हूं कि संभोग से समाधि ! लेकिन ऐसा एक जैन मुनि नहीं है जिसने वह किताब चोरी से न पढ़ी हो। और वह किताब सबसे ज्यादा बिकी; उसके बहुत संस्करण हुए। और जो थोड़े ईमानदार
उन्होंने मुझे पत्र भी लिखे, जैन मुनियों ने भी पत्र लिखे, कि आप किसी को कहना मत, लेकिन इससे हमारे मन को बड़ा साफ रास्ता हुआ, हम हलके हुए। मगर किसी को कहना मत। दस्तखत भी नहीं किए कि कहीं किसी की पकड़ में आ जाए पत्र ।