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________________ संगठन, संप्रदाय, समृद्धि, समझ और सुरक्षा करो। तुम्हारी बगिया में बहुत ज्यादा घास-फूस है, उसमें गुलाब पैदा नहीं हो सकते। वह घास-फूस ही सब पृथ्वी की शक्ति को खा जाता है। उसे अलग करो, अगर तुम चाहते हो कि फूल खिलें। फूल तो बड़े कम में खिल सकते हैं, लेकिन उतना भी तो बचता नहीं। संमृद्ध है वह व्यक्ति जिसकी जरूरतें इतनी कम हैं कि अल्प में पूरी हो जाती हैं, और जिसका पूरा जीवन शेष रह जाता है, पूरी ऊर्जा बच जाती है। उस ऊर्जा को वह सृजन में, संगीत में, समाधि में संलग्न कर सकता है। वही ऊर्जा उसे परमात्मा तक ले जाएगी। समृद्ध ही धार्मिक हो सकता है। लेकिन समृद्धि का तुम ठीक से अर्थ समझ लेना। तीसरा प्रश्न : आपने कहा कि भगवान सदा सबको जरूरत से ज्यादा ही देता है और यह कि उसकी स्वीकृति ही संन्यास हैं। तब प्रश्न उठता है कि वही भगवान हमारे भीतर इच्छाओं और वासनाओं का एक समुद्र ही क्यों भर देता है, जिसके चलते कि जीवन सब गड़-गोबर हो जाता है? वासना जरा भी बुरी नहीं; वासना से कुछ भी नहीं बिगड़ रहा है। वासना तो तुम्हारे जीवन को प्रौढ़ता देने की एक विधि है। वह तो विद्यापीठ है जहां तुम सीखते हो, जहां तुम बढ़ते हो, जहां तुम्हारी चेतना सुदृढ़ होती है, सुकेंद्रित होती है, क्रिस्टलाइज होती है। बिना वासना के तो तुम अबोध रह जाओगे। वासना से गुजर कर ही तुम बोध को उपलब्ध होओगे। वासना तो ऐसे है जैसे आग है। और सोना आग से गुजरे तो ही निखरता है और शुद्ध होता है। वासना को तुम बुरा मत समझना। वासना को बुरा समझा तो तुम अड़चन में पड़ जाओगे। वासना को जीना, समझपूर्वक जीना, वासना से गुजरना। क्योंकि परमात्मा की यही मर्जी है कि तुम वहां से गुजरो। तुम आग को देख कर भाग मत खड़े होना जैसा कि बहुत लोग भाग खड़े होते हैं। दो तरह के लोग हैं साधारणतः। और परमात्मा की मर्जी है कि तुम तीसरे तरह के व्यक्ति बनो। एक, जो आग को ही जीवन समझ लेता है, जैसे सोना आग में ही पड़ा रहे। सोने को डालना जरूरी है, निकालना भी जरूरी है। डालना आधा हिस्सा है। और जब कचरा जल जाए सोने का तो उसे खींच लेना जरूरी है। तो एक तो ऐसा व्यक्ति है जो कि समझता है कि आग ही जीवन है। उसने डाल दिया सोने को, फिर निकालने की बात ही भूल जाता है। उसका सोना जलेगा, शुद्ध भी होगा, और फिर अशुद्ध हो जाएगा। क्योंकि राख मिल जाएगी अब, कूड़ा-कर्कट फिर वापस मिल जाएगा। शुद्ध होने के बाद एक क्षण भी वासना के भीतर रहना फिर अशुद्ध हो जाना है। दूसरे तरह का आदमी, यह देख कर कि कुछ लोग आग में पड़े-पड़े राख, कचरे-कूड़े से भर गए हैं, भाग खड़ा होता है आग से-हिमालय चला जाता है, संन्यास ले लेता है, साधु-मुनि बन जाता है। वह भाग खड़ा हुआ, आग से डर गया। यह भी कचरे से भरा रह जाएगा। क्योंकि आग कचरा जलाने को थी। और यह कभी प्रौढ़ न हो पाएगा। जो लोग भाग गए हैं जीवन से, अगर तुम उन्हें ठीक से निरीक्षण करोगे तो तुम पाओगे, उनमें कुछ कमी रह जाती है। तुम अपने साधु-संन्यासियों को, जो कि वस्तुतः भाग गए हैं, हमेशा पाओगे, उनमें थोड़ा सा बचकानापन रह जाता है। जीवन उन्हें तपा नहीं पाया; वे बड़ी छोटी स्थिति में रह जाते हैं। एक जैन मुनि मेरे पास मेहमान थे। जब मुझसे निकटता उनकी बढ़ गई और आत्मीय हुए तो उन्होंने कहा कि एक दफा मुझे सिनेमा देखना है। क्योंकि मैं नौ साल का था, तब संन्यासी हो गया। मेरे पिता जैन संन्यासी थे। मां मेरी मर गई थी; पिता ने संन्यास लिया। मेरे लिए कोई उपाय न था तो पिता ने मुझे भी दीक्षा दिलवा दी। 119
SR No.002375
Book TitleTao Upnishad Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1995
Total Pages440
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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