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________________ ताओ उपनिषद भाग ५ न तो यह सभ्यता है, न यह संस्कृति है। क्योंकि न तो इसमें प्रेम है, न इसमें प्रार्थना है, न इसमें पूजा-अर्चना है, न इसमें समाधि का सौरभ है, न इसमें ध्यान की गरिमा है। इसमें भीतर की कुलीनता नहीं। इसमें सब बाहर का दिखावा है, दरबार का चाकचिक्य है। और खेत-खलिहान सूखे पड़े हैं। और दरबार में बड़ी रोशनी है। लोग तलवारें लिए खड़े हैं, चोगे पहने हैं कीमती। सम्राट हीरे-जवाहरातों से जड़े सिंहासन पर बैठा है। वे ज्यादा खा-पीकर अघा गए हैं और रुग्ण हैं। और इधर खेत-खलिहान खाली पड़े हैं। और आदमी की बुनियादी जरूरतें पूरी नहीं हो रही हैं। कुछ हैं जो ज्यादा खाकर बीमार हैं; कुछ हैं जो भूख की वजह से बीमार हैं। सारी दुनिया बीमार है। कुछ इसलिए बीमार हैं कि जीवन को सम्हालने के उपाय नहीं; कुछ इसलिए बीमार हैं कि उनके पास इतना ज्यादा है कि वे जानते नहीं करें क्या, वे उस ज्यादा से दबे जा रहे हैं। इसे तुम सभ्यता कहते हो? इससे ज्यादा और बर्बरता क्या होगी? यह एक असभ्य स्थिति है। और इसमें कैसे संस्कृति का जन्म होगा? इससे जो भी निर्मित होता है उसमें भी बर्बरता होती है। फर्क तुम देखोगे। पुराना संगीत है-पूरब का या पश्चिम का। बीथोवन है या मोझर्ट है। तो उस संगीत की बात ही और है। उस संगीत में एक शांति है; तुम सुनोगे तो शांत हो जाओगे, तुम सुनोगे तो तृप्त हो जाओगे। फिर आज का नया संगीत है; नए युवक-युवतियां जो संगीत पश्चिम में पैदा कर रहे हैं। जो संगीत एक उपद्रव है और एक अराजकता जैसा मालूम होता है, जिसे सुन कर तुम्हारे भीतर भी अराजकता पैदा होती है, तुम भी हिंसात्मक हो उठते हो या कामातुर हो उठते हो। पुराने चित्र हैं। अजंता हैं, एलोरा हैं, ताजमहल है। किसी एक और ढंग की चित्त-दशा से पैदा हुए। ताजमहल को तुम अगर अशांत होकर भी देखते रहो थोड़ी देर तो तुम पाओगे, भीतर सब शांत होने लगा। फिर आधुनिक चित्रकला है। पिकासो है। चित्र को अगर तुम थोड़ी देर देखो तो तुम्हें लगेगा कि तुम भीतर पागल हुए जा रहे हो। चित्र को ज्यादा देर देखा नहीं जा सकता; आंख गड़ा कर देखोगे, मुश्किल में पड़ोगे। क्योंकि चित्र में सिर्फ बेचैनी है, विक्षिप्तता है, तनाव है, अशांति है, संताप है। __ जब सभ्यता रुग्ण होती है तो संस्कृति भी रुग्ण हो जाती है। क्योंकि संस्कृति तो सौरभ है। जब फूल बीमार होता है तो उसकी सुगंध में सुगंध नहीं होती, दुर्गंध हो जाती है। सभ्यता फूल है; संस्कृति उसकी सुवास है। लेकिन जब फूल ही सड़ा हो तो फिर सुवास कहां? इसलिए सब दिशाओं में संस्कृति भी रुग्ण हो गई है। नहीं, संस्कृति तो तभी पैदा होगी जब लोग इतने तृप्त होंगे और लोगों के पास इतना जीवन बचेगा। जो बचता है अभी, युद्ध में खो जाता है। युद्ध कोई संस्कृति है? युद्ध तो एक भयानक रोग है, और खबर देता है कि हमारे भीतर कितने नासूर होंगे। रोग तो कैंसर है समाज के भीतर लगा हुआ। लेकिन रोग को हम पहले पालते-पोसते हैं। अगर तुम दुनिया भर की सरकारों के बजट देखो तो पचास से साठ प्रतिशत उनका बजट युद्ध की तैयारी में जा रहा है। यह बड़ी हैरानी की बात है। ये सरकारें जीवन को सम्हालने को हैं या मौत लाने को? इनका प्रयोजन क्या है? ये साठ प्रतिशत मुल्क की धन-संपदा को युद्ध में लगा रहे हैं। जीवन के लिए तो कुछ बचता ही नहीं। जैसे मरने का आयोजन करने के लिए हमने इन सरकारों को बनाया हो। यह किस भांति का जीवन है, जहां मरने की तैयारी इतनी प्रगाढ़ता से चलती है; मारने और मरने के सिवाय कोई दूसरी महत्वपूर्ण बात नहीं दिखाई पड़ती। अगर लाओत्से की हम सुनें, संतों को हम समझें, तो एक दूसरी ही तरह की जीने की व्यवस्था पैदा होगी। उस जीवन-व्यवस्था का मूल आधार यह होगा कि तुम्हारी जरूरतें जरूर पूरी होनी चाहिए। लेकिन जरूरतें तो बहुत कम में पूरी हो जाती हैं। असली काम गैर-जरूरतों को छांटना है, जरूरतों से अलग करना है। घास-फूस को अलग 118
SR No.002375
Book TitleTao Upnishad Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1995
Total Pages440
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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