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________________ संगठन, संप्रदाय, समृद्धि, समझ और सुरक्षा जब कोई व्यक्ति सुंदर होता है तो आभूषण की कोई जरूरत नहीं रह जाती, तब ऊपर से रंग-रोगन का कोई प्रयोजन नहीं रह जाता। पक्षी हैं, पौधे हैं, पशु हैं, बिना रंग-रोगन के कितने सुंदर हैं! आदमी को क्या जरूरत है? आदमी ने सभी वास्तविकता खो दी है। सब धोखा है। और अदभुत हो तुम कि इसको तुम सौंदर्य भी मान लेते हो। स्वास्थ्य सौंदर्य हो सकता है, ऊपर से पोती गई कृत्रिम प्रसाधन की सामग्री सौंदर्य नहीं हो सकती। ... जब कोई व्यक्ति ठीक-ठीक सुंदर होता है, शांत होता है, प्रसन्न होता है, प्रफुल्लित होता है, तो उसकी देह से एक गंध आती है जो गंध बड़ी सोंधी है। जैसे कि जब पहली वर्षा होती है और पृथ्वी से गंध उठती है, क्योंकि पृथ्वी प्रसन्न होती है, तृप्त होती है, प्यास बुझती है; वैसी ही गंध शरीर से भी उठती है, जब कोई व्यक्ति तृप्त होता है, शांत होता है। वैसी गंध को तुम खो चुके हो। वह नहीं उठती। शरीर से दुर्गंध उठती है। तो उसे छिपाने के लिए तुम्हें फिर बाजार से खरीदी हुई सुगंधों का उपयोग करना पड़ता है। वे सुगंधे केवल इतनी ही खबर देती हैं कि तुम्हारा शरीर दुर्गध से भरा होगा। अन्यथा छिपाते क्यों? अन्यथा दबाते क्यों? तुम जितना उपाय करते हो, वह सब प्रवंचना है। और यह सारी दौड़-धूप जो इतनी दिखाई पड़ती है सारे संसार में चलती हुई कि बड़ा काम हो रहा है, बड़ी समृद्धि हो रही है, बड़ा विकास हो रहा है, कुछ भी नहीं हो रहा। इसमें से पचास प्रतिशत तो बिलकुल व्यर्थ है। शेष पचास प्रतिशत में चालीस प्रतिशत ऐसा है जो कि युद्ध, संघर्ष, कलह की तैयारी में जा रहा है। पचास प्रतिशत प्रसाधन के साधन हैं कि खो गया सौंदर्य कैसे बचाया जाए या कैसे दिखाया जाए कि नहीं खो गया है, कैसे आदमी को अभिनेता बनाया जाए-धोखा, प्रवंचना। बाकी चालीस प्रतिशत युद्ध के लिए है। पचास प्रतिशत खो गए जीवन के सौंदर्य को धोखा देने के लिए; और चालीस प्रतिशत जीवन को अंत करने के लिए कि जो थोड़ा-बहुत जीवन बचा है उस पर हाइड्रोजन बम और एटम बम कैसे गिराया जाए। यह नब्बे प्रतिशत मनुष्य की सभ्यता है। बाकी दस प्रतिशत बचता है। उस दस प्रतिशत में आधी दुनिया भूखी है। एक जून रोटी लोगों को नहीं है, छप्पर नहीं है, औषधि नहीं है। और जीवन कीड़े-मकोड़ों जैसा है। यह हमारी सभ्यता है। अगर हम जीवन की जरूरतों को ही पूरा करने में लगें—जैसा लाओत्से चाहता है, जैसा मैं चाहूंगा तो न तो झूठे सौंदर्य के प्रसाधन, झूठी प्रतिष्ठा के उपाय, झूठी महत्वाकांक्षा की तृप्ति में पचास प्रतिशत श्रम का अंत होगा। और उसी प्रतिस्पर्धा और प्रतियोगिता से पैदा होता है युद्ध जिसमें चालीस प्रतिशत शक्ति व्यय हो रही है। अगर यह पूरी नब्बे प्रतिशत शक्ति जीवन की जरूरतों को पूरा करने में लगाई जाए तो जरूरतें पूरी हो जाएंगी और इतनी विराट ऊर्जा बचेगी मनुष्य के पास कि उसी विराट ऊर्जा से संस्कृति का निर्माण होगा। लेकिन वह संस्कृति बड़ी भिन्न होगी। वह ऊर्जा प्रार्थना में लगेगी। वह ऊर्जा ध्यान में लगेगी। वही ऊर्जा संगीत बनेगी। वह ऊर्जा सृजनात्मक गतिविधियों में लीन होगी। और जब भी तुम कुछ बना लेते हो, एक छोटी मूर्ति, एक छोटा चित्र, एक नया गीत, एक नई धुन निकाल लेते हो, और जब यह धुन तुम्हारे भीतर की तृप्ति से निकलती है, तब संस्कृति का जन्म होता है। संस्कृति है साहित्य, संस्कृति है कला, संस्कृति है सत्य की खोज। संस्कृति है एक प्रेम के समाज का निर्माण; एक शांत, आनंदित, प्रफुल्लित समाधि की ओर उत्सुक समाज का जन्म। लेकिन ऊर्जा हो तभी। अभी तो ऊर्जा बचती नहीं। अभी तो तम व्यर्थ के गोरखधंधे में समय व्यतीत कर देते हो। थके-हारे रात तुम लौटते हो, किसी तरह सो भी नहीं पाते रात भर; क्योंकि दिन में जो तुमने चिंताएं समाई हैं, इकट्ठी की हैं, वे रात भर तुम्हारा पीछा करती हैं। तो रात बन जाती है दुख-स्वप्न। दिन है एक व्यर्थ की दौड़-धूप। ऐसे ही तुम चुक जाते हो। एक दिन पाते हो : जीवन समाप्त हो गया, मौत द्वार पर खड़ी है। इसे तुम संस्कृति कहते हो? इसे तुम सभ्यता कहते हो? 117|
SR No.002375
Book TitleTao Upnishad Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1995
Total Pages440
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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