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________________ ताओ उपनिषद भाग ५ 116 और समुद्र से कभी किसी की तृप्ति हुई? वह दिखता ही बहुत बड़ा है; जाओगे तो पाओगे, वह तो प्यास बुझाता नहीं, प्यास को बढ़ाता है। धन से कभी किसी की तृप्ति हुई ? धन समुद्र का खारा पानी है, जितना पीते हो उतनी प्यास बढ़ती है। क्योंकि नमक ही नमक है। उतना ही कंठ सूखता है। आदमी मर जाए भला समुद्र का पानी पीकर, जी नहीं सकता। पानी पीना हो तो छोटा सा कुआं, जो तुम अपने आंगन में खोद ले सकते हो, जिसके लिए तुम्हारा आंगन भी काफी बड़ा है, छोटा सा झरना, छोटी सी झिर जिससे चुल्लू भर पानी वक्त पर निकल आए, उतना काफी है। तब तुम कैसे दरिद्र रह पाओगे, अगर तुम थोड़े से राजी हुए? और जब मैं कहता हूं, थोड़े से राजी हुए, तो तुम यह मतलब मत समझना कि मैं तुमसे कह रहा हूं कि तुम अपनी जरूरतों को दबाना, कि भूखे सो रहना, कि नंगे घूमना। यह मैं नहीं कह रहा हूं। मैं तुमसे इतना ही कह रहा हूं कि तुम्हारी जरूरतें ही समझ लेना ठीक से, कौन सी जरूरतें हैं, उनको पूरा करना । गैर-जरूरी जरूरतों को बीच में मत आने देना, क्योंकि उनका कोई अंत नहीं है। शरीर की सुनना, मन की मत सुनना । और सभी धर्मों ने तुम्हें कुछ उलटा ही सिखाया है। वे कहते हैं, मन की सुनना, शरीर की भर मत सुनना । और शरीर बिलकुल थोड़े में तृप्त हो जाता है। मन ही अतृप्त है। कितना करोगे भोजन ? कितना पानी पीओगे ? शरीर के लिए चाहिए क्या ? इसीलिए तो तुम देखते हो कि शरीर में जीने वाले पशु-पक्षी इतने प्रसन्न हैं, क्योंकि जरूरत बिलकुल थोड़ी है। आदमी भर अप्रसन्न है। क्योंकि आदमी की जरूरत मन की जरूरत है। मन का कोई अंत नहीं है। वह कामना किए जाता है। वह वासना को बढ़ाए चला जाता है। तुम जहां भी पहुंचो वह वहीं कहता है कि यह मंजिल नहीं, मंजिल अभी दूर है। अभी पहुंचे कहां ? थोड़ा और दौड़ो । तुम दौड़ते-दौड़ते मर जाते हो, तृप्ति हाथ नहीं लगती। तो यह तो पहली बात समझ लो कि समृद्ध वही है जो अपनी जरूरतों को जरूरत समझता है और गैर-जरूरतों को गैर जरूरत समझता है, जो अपनी आधार की जरूरतों को भर लेता है, और जो व्यर्थ की बातों को जो सिर्फ दिखावा है...। सोने-चांदी से न तो प्यास बुझती है, हीरे-जवाहरातों से न तो भूख मरती है। तुम ही मर जाओ उनमें दबकर, लेकिन भूख नहीं मर सकती उनसे । जिसने यह ठीक से समझ लिया कि व्यर्थ के विस्तार को छोड़ देना है, जो आवश्यक है वह शरीर को दे देना है, उसके जीवन में परम तृप्ति का स्वाद आता है। वही तृप्ति समृद्धि है, उसी समृद्धि बाद धर्म की कोई संभावना है। नहीं तो नहीं। और आप पूछते हैं कि क्या होगा फिर सभ्यता का, समृद्धि का ? असली सभ्यता की सुविधा बनेगी। असली समृद्धि आएगी; असली संस्कृति आएगी। अभी तो सब नकली है। क्योंकि नकली आदमी की आकांक्षा है। उसी पर सारा फैलाव है। तुम दौड़ रहे हो । बहुत कुछ होता हुआ दिखाई पड़ता है। बड़ा विराट उपक्रम है। सभी लोग काम में लगे हैं। लेकिन क्या पैदा कर रहे हैं? मैं हिसाब देखता था । अमरीका में पचास प्रतिशत श्रम व्यर्थ की चीजों को पैदा करने में लगाया जा रहा है, जिनकी कोई जरूरत ही नहीं। स्त्रियों के साज-श्रृंगार का सामान ! उसकी बिलकुल भी जरूरत नहीं है। उससे स्त्रियां सुंदर नहीं होतीं, बल्कि उनका जो सहज सौंदर्य है वह भी खो जाता है, उनका जो लावण्य है वह भी खो जाता है। ओंठों पर लिपिस्टिक लगाई हुई स्त्री का चेहरा तुम सुंदर समझते हो ? तो तुम्हारी सुंदर की परिभाषा में कहीं कोई भ्रांति है। जिस ओंठ पर लिपिस्टिक लगा है वह खबर दे रहा है कि ओंठ की अपनी लाली खो गई है, ओंठ बीमार है; अब उसको ऊपर की पालिश से छिपाना पड़ रहा है। ओंठ जब सुंदर होता है खून की गति से तब उसकी बात और है । ऊपर के रंग-रोगन से जब ओंठ लाल दिखाई पड़ता है तब तुम मूढ़ हो, अगर तुम उसे सुंदर समझ रहे हो। वह तो घोषणा है इस बात की कि ओंठ का अपना लावण्य खो गया है, अब ओंठ का अपना सौंदर्य नहीं है, यह छिपावा है।
SR No.002375
Book TitleTao Upnishad Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1995
Total Pages440
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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