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मेरे अनुकूल यही है कि मैं तुम्हें सहायता दे दूं, ताकि तुम पास ही अपनी पगडंडी बनाओ। तुम्हारी पगडंडी और मुझमें ज्यादा फासला न हो। तो जब तुम जागो, या तुम्हें जरा होश आए, तो तुम छलांग ले सको, राजपथ पास ही हो।
संगठन, संप्रदाय, समृद्धि, समझ और सुरक्षा
दूसरा प्रश्न हैं: आप कहते हैं कि आदमी की जरूरतें बहुत थोड़ी हैं। फिर आदमी यदि जरूरत भर ही पँदा करे तो सभ्यता का, समृद्धि का निर्माण असंभव हो जाएगा। और आप यह भी कहते हैं कि समृद्धि में ही धर्म का उदय होता है। फिर आदमी क्या करे?
निश्चित ही, समृद्धि में ही धर्म का उदय होता है। लेकिन जितनी तुम्हारी वासनाएं कम हों उतने ही जल्दी तुम समृद्ध हो जाते हो। जितनी वासनाएं ज्यादा हों उतनी ही देर लगती है समृद्ध होने में। अगर वासनाएं बहुत हों तो तुम समृद्ध कभी नहीं हो पाते। तो समृद्धि तुम्हारे धन से नहीं की जाएगी। समृद्धि तो तुम्हारे धन और तुम्हारी वासनाओं के बीच का फासला है। जब फासला कम होता है तब तुम समृद्ध हो। अगर फासला बिलकुल नहीं है तो तुम सम्राट हो, शाहंशाह हो। अगर फासला बहुत बड़ा है तो तुम दरिद्र हो, भिखारी हो। समझो!
अगर तुम्हारी जरूरतें एक रुपए में पूरी हो जाती हैं, और तुम्हारे पास दस रुपए हैं। दूसरा आदमी है जिसकी जरूरतें गैर-जरूरतों से जुड़ी हैं, सार असार से जुड़ा है; उसे दस अरब रुपए भी मिल जाएं तो भी पूरा नहीं हो सकता; और उसके पास पांच अरब रुपए हैं। पांच अरब रुपए हैं, दस अरब में भी वासनाएं पूरी न हों इतनी वासनाएं हैं। तुम्हारे पास दस रुपए हैं, एक रुपए में पूरी हो जाएं इतनी जरूरतें हैं। दोनों में कौन समृद्ध है? वह आदमी जिसके पास दस रुपए हैं, उस आदमी से ज्यादा समृद्ध है जिसके पास पांच अरब रुपए हैं। क्योंकि पांच अरब वाले के पास आधे हैं उसकी जरूरतों से, और इस आदमी के पास दस गुने हैं उसकी जरूरतों से। समृद्ध कौन है?
और निश्चित ही, मैं फिर कहता हूं, बार-बार कहता हूं कि समृद्ध ही धर्म में प्रवेश करेगा। लेकिन तुम समृद्धि 1. का यह मतलब मत समझ लेना कि जब तुम सिकंदर हो जाओगे तब तुम धर्म में प्रवेश करोगे। तब तो तुम कभी
प्रवेश करोगे ही नहीं। समृद्धि का अर्थ है कि तुम्हारी जरूरतें इतनी कम हों कि तुम जब भी, जैसे भी हो, वहीं पाओ कि समृद्ध हो। जब जरूरतें पूरी हो जाती हैं-थोड़ी हैं तो जल्दी पूरी हो जाती हैं, देर ही नहीं लगती, तुम पाते हो कि पूरी ही हैं-तब तुम्हारी जीवन-ऊर्जा क्या करेगी? वही जीवन-ऊर्जा तो धर्म की यात्रा पर निकलती है। तुम्हारी जरूरतें पूरी हैं, अब तुम क्या करोगे? अब तुम्हारे होने में क्या होगा? तुम्हारा होना किस दिशा में बहेगा? संसार की जरूरतें तुम्हारी पूरी हो गईं, इतनी थोड़ी थीं कि पूरी हो गईं, अब तुम मुक्त हो उस दूसरे संसार की यात्रा के लिए, अब तुम्हें यहां रोकने को कोई भी नहीं है। अब इस किनारे पर तुम्हारी नाव बंधी रहे, इसकी कोई जरूरत नहीं। तुम तैयार हो दूसरे किनारे पर जाने को; नाव खोल सकते हो, खूटियां छोड़ सकते हो, पाल फैला सकते हो। इस किनारे की जरूरतें पूरी हो चुकीं।
तो ध्यान रखना। यही तो मैं कहता हूं कि जो मैं कहता हूं तुम वही सुनोगे, इसमें संदेह है; जो मेरा अर्थ है तुम वही समझोगे, इसमें संदेह है। मैं निरंतर कहता हूं कि जब तक तुम समृद्ध न हो जाओगे तब तक तुम धार्मिक न हो सकोगे। और तुम जरूर अपने मन में यही अर्थ निकालते रहे, तभी तो यह प्रश्न उठा, कि पहले सिकंदर हो जाना है, सारी दुनिया को जीत लेना है, तब फिर धार्मिक होंगे। वह मैंने कहा नहीं; तुमने उलटा ही समझा। तुम समझे कि जरूरतों को बढ़ाते जाना है, समृद्ध होना है।
___ मैंने कहा है कि तुम जरूरतों को घटाते जाना, व्यर्थ को छोड़ देना। जो बिलकुल जरूरी है वह बहुत थोड़ा है।
बहुत थोड़े में आदमी की तृप्ति हो जाती है। तुम्हारी प्यास के लिए समुद्र की जरूरत नहीं है; छोटा सा झरना काफी है। 115