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धर्म का मुख्य पथ सरल है
बातें भिन्न होंगी कि कोई इस बाप से पैदा हुआ, कोई उस बाप से पैदा हुआ। इसका क्या लेना-देना है कि कोई इस मां की कोख में आया, कोई उस मां की कोख में आया। कोख एक है; जन्म की घटना एक है। कोई इधर मरा, कोई उधर मरा, इस गांव में या उस गांव में; इससे क्या फर्क पड़ता है। यह सांयोगिक है। मृत्यु घटी; जन्म हुआ, मृत्यु घटी। कोई इस दुख से ऊबा और ध्यान में गया, कोई उस दुख से ऊबा और ध्यान में गया; इससे क्या फर्क पड़ता है? लोग दुख से ऊबे और दुख-निरोध की तरफ ध्यान में गए। हमने निचोड़ लिया सार। सब गुलाबों की अलग-अलग कथा लिखना नासमझी है; हमने तो निकाल लिया इत्र, सुवास पकड़ ली, उस सुवास को लिख लिया।।
इसलिए पुराण शाश्वत है। पुराण का मतलब यह नहीं कि जो पहले हुआ। पुराण का मतलब : जो पहले हुआ, अभी भी हो रहा है, आगे भी होगा। इतिहास का मतलब: जो हुआ और चुक गया; अभी नहीं हो रहा वैसा, कुछ अन्य हो रहा है; आगे कुछ अन्य होगा। इतिहास गैर-जरूरी विस्तार है। पुराण आत्मा है, सार है।
लाओत्से कहता है, इस संसार में लूटपाट चल रही है, शोषण चल रहा है, हिंसा है, घृणा है, प्रतिस्पर्धा है। और कारण क्या है? कारण इतना है कि कोई भी साधारण होने को राजी नहीं।
इसे तुम ठीक से समझ लो। जो साधारण हो गया वह संन्यासी है। जो असाधारण होने की दौड़ में लगा है वह संसारी है। अगर तुम संन्यास से भी असाधारण होने की दौड़ में लगे हो, तुम संसारी हो।
एक युवक ने दो दिन पहले मुझे आकर कहा कि वह लंदन वापस जाता है तो मन नहीं लगता, यहां आने की इच्छा बनी रहती है। मैंने पूछा कि तू ठीक से सोच, क्या कारण होगा? क्योंकि लंदन और यहां में क्या है फर्क? ध्यान यहां करना है, ध्यान तुझे वहां करना; जीना यहां, श्वास यहां लेनी, श्वास वहां लेनी है। उसने कहा, यह बात नहीं है। वहां मैं एक साधारण सा मजदूर हूं; यहां मैं एक विशिष्ट संन्यासी हूं। तो वहां जाता हूं, एक साधारण आदमी हूं, एक मजदूर; यहां आता हूं तो हर आदमी देखता है कि पश्चिम से आया हुआ एक विशेष संन्यासी! यहां एक विशिष्टता है।
अगर ऐसे कारण से कोई संन्यासी है, संसारी है। क्योंकि संन्यास का अर्थ ही इतना है : साधारण हो जाना; ऐसे हो जाना कि तुम जैसे हो ही नहीं; जैसे तुम न होते तो कोई फर्क न पड़ता; जैसे तुम्हारे जाने से कोई कमी न होगी। जब कोई मर जाता है तो हम कहते हैं, यह कमी कभी न भरेगी, यह पूर्ति असंभव है अब इसको करना, यह जगह सदा खाली रहेगी। ये संसारियों के लक्षण हैं। तुम इस तरह जीना कि जब तुम हट जाओ तो किसी को पता ही न चले; जब तुम विदा हो जाओ, तुम्हारी कोई कमी किसी को मालूम न पड़े। क्योंकि जब तुम थे तब तुम्हारी मौजूदगी ही पता न चली तो अब तुम्हारी गैर-मौजूदगी से पता चलेगी? न, तुम्हें कोई उल्लेख न करे, कोई तुम्हारी चर्चा न करे। कोई तुम्हारी बात न उठाए। तुम ऐसे भूल जाओ जैसे थे ही नहीं। तुम ऐसे खो जाओ जैसे भाप खो जाती है आकाश में, कहीं कोई पता नहीं चलता। ऐसे साधारण हो जाने का नाम संन्यास है।
और जब तक संसार संन्यास न बन जाए तब तक भ्रष्टाचार जारी रहेगा। अभी तो जिनको हम संन्यासी कहते हैं वे भी संसारी हैं। वे चाहे कितनी ही बात करते हों भ्रष्टाचार मिटाने की, इसकी उसकी, वे भी संसारी हैं। उनकी भी दौड़ वही है, जो संसारी की है। वे भी कुछ होने के पीछे पड़े हैं।
होने की कुछ जरूरत ही नहीं। क्योंकि तुम जो हो सकते थे वह तुम हो। तुम्हारी महिमा में एक कण भी जोड़ना आवश्यक नहीं है। क्योंकि तुम्हारी महिमा अनंत है। तुम्हारी ज्योति में अब और ज्योतियां जोड़ने का कोई प्रयोजन नहीं है; क्योंकि तुम महा ज्योति हो, तुम परमात्मा हो। यही अर्थ है अहं ब्रह्मास्मि का। यह उदघोष यह कह रहा है कि अब तुम्हें कुछ करना नहीं है। कभी कुछ करना नहीं था। तुम परम पहले से ही हो। तुम आखिरी हो। तुमसे ऊपर जाने का कोई उपाय भी नहीं है।
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