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ताओ उपनिषद भाग
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पा लिया। सिकंदर को नहीं आई तो तुम्हें कैसे आएगी ? आज तक दुनिया में बड़े से बड़े धनपति को नहीं आई तो तुम्हें कैसे आएगी? कुबेर भी रो रहा है। सोलोमन भी मरते वक्त परेशान है। सब नहीं हो पाया; सब नहीं मिल पाया।
जीसस ने कहा है अपने शिष्यों को कि देखो खेत में खिले हुए लिली के फूल ! देखो इनकी शान ! सोलोमन, सम्राट सोलोमन, अपनी पूरी सफलता के क्षणों में भी इतना सुंदर नहीं था ।
लिली के फूल के पास है भी क्या ? साधारण जंगली फूल है। लेकिन क्या कमी है ? तुमने कभी लिली के फूल को कोई शिकायत करते देखा कि उसने कहा हो कुछ कम है? जल मिलता है पृथ्वी से, प्यास तृप्त हो जाती है। सूरज की किरणें मिलती हैं, जीवन प्रफुल्लित हो जाता है, सुवास आ जाती है। और चाहिए क्या ?
लाओत्से कहता है, जीवन की जो साधारण जरूरतें हैं जो उनसे ही राजी हो गया वह उस महा पथ को उपलब्ध हो जाएगा। क्योंकि उसकी जीवन-ऊर्जा व्यर्थ की दौड़ में नहीं पड़ेगी। वह जीवन-ऊर्जा बच रहेगी। वह जीवन-ऊर्जा उसे ऐसा संपन्न बना देगी, भीतर की गरिमा से ऐसा भर देगी जैसा हर फूल भरा है। उसके भीतर का दीया जल जाएगा।
'दरबार चाकचिक्य से भरे हैं, जब कि खेत जुताई के बिना पड़े हैं और बखारियां खाली हैं।'
खेत की किसी को चिंता नहीं । खलिहान खाली पड़े हैं। बखारियां रिक्त हैं। जीवन की मूल जरूरतें लोग चूक गए हैं। और व्यर्थ की बातें, दरबार, दिल्लियां, बड़ी महत्वपूर्ण हो गई हैं। सब दिल्ली की तरफ भाग रहे हैं। राजनीतिज्ञ भाग रहे हैं; जो सोचते हैं कि राजनीतिज्ञ नहीं हैं वे भी भाग रहे हैं। साधु-संन्यासी भाग रहे हैं। क्या है दरबार में? दरबार प्रतीक है लाओत्से के लिए व्यर्थता का, असार का। क्या है राजधानियों में ? वे आदमी की मूढ़ता के स्तंभ हैं। वे आदमी की नासमझी के प्रतीक हैं। लेकिन सभी भाग रहे हैं। मन में एक ही दौड़ लगी है कि कैसे दरबार में पहुंच जाएं। दरबार में पहुंच कर क्या होगा? खाली पेट, खाली आत्मा । तुम बाहर स्वर्ण से थोप भी दिए जाओगे तो क्या होगा ?
'तथापि जड़ीदार चोगे पहने, चमचमाती तलवारें हाथों में लिए, श्रेष्ठ भोजन और पेय से अघाए, वे धन-संपत्ति में सरोबोर हैं। इससे ही संसार लूटपाट पर उतारू होता है। क्या यह ताओ का भ्रष्टाचरण नहीं है ?'
ताओ का एक ही भ्रष्टाचरण है, ताओ से वंचित हो जाने का एक ही ढंग है— कि तुम गैर-जरूरी को जरूरी समझ लो । फिर सब भ्रष्ट हो जाएगा। हर समाज भ्रष्टाचार से मुक्त होना चाहता है, लेकिन हो नहीं सकता।
इधर भारत में बड़ी चर्चा चलती है: भ्रष्टाचार है, इससे मुक्त होना है। भ्रष्टाचार सदा से है। और सदा से लोग मुक्त होने की कोशिश कर रहे हैं। और बिना लाओत्से की आवाज सुने कोशिश कर रहे हैं। भ्रष्टाचार मिट नहीं सकता, जब तक असार सार मालूम पड़ता है। इसलिए भ्रष्टाचार मिटाने का कोई ढंग कानून बनाना नहीं है पार्लियामेंट में और न ही कोई जयप्रकाश की तरह आंदोलन चलाने से भ्रष्टाचार मिटता है। क्योंकि वह आंदोलन भी कानून को ही बदलने का जोर करेगा। और क्या करेगा? और आंदोलन चलाने वाले भी उतने ही भ्रष्टाचारी हैं जितने कि जो पद में बैठे हैं। कोई फर्क नहीं है। क्योंकि भ्रष्टाचार का मूल तो दोनों के भीतर एक है। और वह मूल यह है कि जो व्यर्थ है वह सार्थक मालूम होता है।
तो भ्रष्टाचार तो तभी मिट सकता है जब लोग ताओ से जुड़ जाएं, लोग धार्मिक हों; उसके पहले नहीं मिट सकता। जब तक हीरा मूल्यवान मालूम होता है, स्वर्ण मूल्यवान मालूम होता है, पद मूल्यवान मालूम होता है, प्रतिष्ठा मूल्यवान मालूम होती है, राजनीति मूल्यवान मालूम होती है, दरबार, राजधानियां मूल्यवान मालूम होती हैं, सिंहासन का जब तक कोई भी मूल्य है, तब तक भ्रष्टाचार नहीं मिट सकता। क्योंकि भ्रष्टाचार का एक ही अर्थ है कि तुम अपने स्वभाव से च्युत: हो गए। | कौन सी जगह से तुम च्युत हुए हो ? कहां तुम्हारी पहली भूल है ?