________________
ताओ उपनिषद भाग ५
104
मेरे पास अनेक मित्र आते हैं। वे मुझसे कहते हैं कि आपकी बातें ठीक लगती हैं, लेकिन क्या यह नहीं हो सकता कि हम आपके प्रति मित्र भाव रखें और शिष्य भाव न रखें। तो क्रांति नहीं होगी ?
कुछ बुरी बात नहीं कह रहे हैं; बिलकुल ठीक बात कह रहे हैं। कौन उनकी बात को गलत कहेगा? और अगर मैं कहूं कि नहीं, मित्र-भाव से काम न चलेगा; तो स्वभावतः उनके मन में खयाल उठेगा, यह आदमी बड़ा अहंकारी है, यह गुरु बनना चाहता है। और अगर मैं कहूं कि ठीक, बिलकुल मित्र भाव रखो तो वे मुझे अपने तल पर लाने की कोशिश में लगे हैं। आज वे कहेंगे मित्र - भाव, कल वे मेरे कंधे पर हाथ रख कर हंसी-मजाक करना चाहेंगे।
शिष्य जब गुरु के पास आता है तब भी उसकी अचेतन बीमारियां लेकर आता है। उसका कोई कसूर नहीं है । वह जैसा है वैसा ही आएगा, बदल कर नहीं आ सकता । बदलने आया है। बीमार है, इसीलिए आया है। लेकिन वह अपनी बीमारी भी लाया है। और गुरु अगर उसके तल पर जरा भी उतर जाए तो उसे बदल न पाएगा। बिना उतरे भी अगर वह उसको सहमति दे दे इतनी भी कि ठीक है, मित्र रहो - मित्रता बड़ी कीमती बात है, और गुरु की तरफ से कोई अड़चन नहीं है, गुरु की तरफ से वस्तुतः तुम मित्र ही हो— लेकिन स्वीकृति भी दे दे, तो तुम्हें उठा नहीं सकेगा।
कृष्णमूर्ति चालीस साल की निरंतर मेहनत के बाद किसी को भी उठा नहीं सके, क्योंकि एक भ्रांति की स्वीकृति उन्होंने दे दी, जो उनकी तरफ से बिलकुल ठीक थी। उन्होंने कहा, मैं तुम्हारा गुरु नहीं हूं, ज्यादा से ज्यादा एक मित्र । कृष्णमूर्ति की तरफ से बात बिलकुल ठीक है; गुरु की तरफ से मित्रता ही है। लेकिन सुनने वाले का अहंकार परिपुष्ट हुआ। जो शिष्य होने आए थे वे मित्र होकर वापस लौट गए। बात ही खतम हो गई। अब क्रांतिका कोई उपाय न रहा। क्योंकि क्रांति का उपाय तभी है जब तुम किसी को ऊपर देख सको — इतनी ऊंचाई पर कि तुम्हारा सिर झुक जाए तो भी तुम उसे पूरा न देख पाओ, उसका अंतिम शिखर दूर आकाश में खोया हो – तभी तुम चढ़ोगे, तभी तुम उठोगे, तभी तुम यात्रा पर निकलोगे।
छोटी पगडंडियां लोग पसंद करते हैं। इसलिए छोटे-छोटे गुरु लोग पसंद करते हैं। जिनको तुम मैनेज कर सको, जिनको तुम व्यवस्था दे सको, जो तुम्हारी आज्ञा से इधर-उधर न जाएं। अगर कबीर होते तो वे कहते, एक अचंभा मैंने देखा कि शिष्य गुरु को ज्ञान बताए । पर ऐसा हो रहा है। शिष्य गुरुओं को चला रहे हैं। संप्रदाय धर्म बन बैठे हैं। पगडंडियां राजपथ होने का दावा कर रही हैं। और तुम्हें सुखद लगता है। क्योंकि तुम उन पगडंडियों से बड़े बने रहते हो। तुम अपने गुरु से भी बड़े बने रहते हो ।
मेरे पास जैन साधु आकर कई बार कह कर गए हैं कि बड़ी मुश्किल है, समाज आने नहीं देता आपके पास; अनुयायी कहते हैं कि वहां मत जाना। और अनुयायियों की उन्हें माननी पड़ती है। मुझसे चोरी से भी मिलने जैन साधु आए हैं, क्योंकि वे प्रकट नहीं आ सकते। किसी को पता न हो। किसी को पता चल जाए तो वे कहेंगे, तुम वहां क्यों गए?
इसको मैं कह रहा हूं कि जिसको तुम मैनेज कर सको। अब इस गुरु से तुम क्या पाओगे ? यह तुम्हारी कठपुतली है । यह तुमसे डरा हुआ है; यह तुमसे भयभीत है। जो तुमसे भयभीत है उसका परमात्मा से क्या संबंध ? जो तुमसे डरा है वह तुमसे गया- बीता है। तुम्हारे गुरु तुमसे गए बीते हैं। लेकिन पगडंडियों पर यही तो चलने का मजा है कि तुम गुरुओं को भी चला पाते हो ।
'दरबार चाकचिक्य से भरे हैं, जब कि खेत जुताई के बिना पड़े हैं और बखारियां खाली हैं।'
लाओत्से कहता है कि मनुष्य स्वभाव से इस बुरी तरह छूट गया है कि उसे खयाल में नहीं रहा है कि जीवन को उसने कितने असार से भर लिया स्वभाव से छूट कर। और असार इतना सारपूर्ण मालूम होने लगा है कि तुम बिलकुल अंधे ही होओगे, तुम्हें बिलकुल बोध की एक किरण भी न होगी, तभी ऐसा हो सकता है।