SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 113
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ धर्म का मुख्य पथ सरल है इससे ठीक उलटा मार्ग है धर्म का-जब तुम अपने से बड़े की तलाश करते हो। बड़ी पीड़ा होगी। क्योंकि तुम छोटे मालूम पड़ोगे। जितने बड़े के पास तुम जाओगे उतने छोटे मालूम पड़ोगे। कहते हैं, ऊंट हिमालय के पास जाना पसंद नहीं करते, रेगिस्तान में रहते हैं इसीलिए जहां पहाड़ वगैरह से मिलना ही न हो। रेत की छोटी-मोटी पहाड़ियां भी मिल जाएं उनसे कुछ डर नहीं। ऊंट की ऊंचाई कायम रहती है। और जब ऊंट पहाड़ के पास आता है तो बड़ी दीनता अनुभव करता है। ऐसे ही शिष्य जब गुरु के पास आता है, आने की चेष्टा में ही एक क्रांति शुरू हो जाती है। आना ही क्रांति है। क्योंकि तुमने यह अनुभव कर लिया कि अपने से छोटे को खोज कर तुम छोटे होते जाओगे। अपने से बड़े को खोज कर ही तुम्हारे बड़े होने का उपाय है। यद्यपि बड़े होने में पहले तुम्हें छोटे होने की बड़ी गहरी पीड़ा होगी। उस पीड़ा से गुजरना होगा। छोटे लोगों का साथ खोज कर तुम्हें बड़ा सुख मिलेगा, लेकिन वह सुख दो कौड़ी का है। क्योंकि उस सुख के कारण तुम्हें और भी पीड़ाओं में उतरना पड़ेगा। तुम्हें रोज छोटे, और छोटे को खोजना पड़ेगा। क्योंकि तुम छोटे होते जाओगे। जिनके साथ तुम रहोगे, वैसे ही हो जाओगे। संग का बड़ा परिणाम है; क्योंकि चेतना की आदत है सम्मिलित हो जाने की। अगर तुम क्षुद्र लोगों के साथ रहे तो तुम थोड़े दिन में सम्मिलित हो जाओगे। तुम खयाल न किए हो, अगर दो-चार आदमी बड़े प्रसन्न मिल जाएं तुम्हें-हंस रहे हों, गपशप कर रहे हों-तुम उदास भी हो तो तुम भूल जाते हो कि उदास हो, तुम भी हंसने लगते हो। संक्रामक है हंसी। कोई उदास बैठे हों दो-चार सज्जन और तुम उनके पास बैठ जाओ थोड़ी देर, तुम उदास हो जाओगे। तुम्हारे मन में विचार उठने लगेंगे कि कैसे उदासीन संप्रदाय में सम्मिलित हो जाएं। वैराग्य का भाव उदय होने लगेगा कि सब संसार असार है, तो जीवन व्यर्थ है। आत्महत्या मन में उठने लगेगी। चेतना तुम्हारे शरीर में सीमित नहीं है। चेतना तुम्हारे चारों तरफ बहती है और मिलती है। सदा पहाड़ को खोजना, सदा अपने से ऊंचे को खोजना। तो तुम्हारी ऊंचाई बढ़ेगी और गहराई बढ़ेगी। तुम जिनके साथ रहोगे, वैसे होते जाओगे। इसीलिए तो सत्संग की इतनी महिमा है। सत्संग का अर्थ है, सदा अपने से श्रेष्ठ को खोजते रहना, उसकी हवा में जीने की कोशिश, उसकी आभा को पीना, उसकी चेतना को बहने देना अपने भीतर। गुरु का अर्थ यही है कि जिसके पास तुम रहो तो वह तुम्हें उठाए, तुम उसे न गिरा सको। अगर तुम उसे गिरा लो तो वह गुरु नहीं। क्योंकि एक घटना साफ है। जब तुम एक गुरु के पास जाते हो तो दो तरफ से सोचो। तुम गुरु के पास जा रहे हो, तुम अपने से बड़े के पास जा रहे हो। लेकिन गुरु तुम्हें आज्ञा दे रहा है पास आने की, वह अपने से छोटे को आज्ञा दे रहा है। तो गुरुं की कसौटी यही है कि जिसे तुम अपने तल पर न उतार सको। हालांकि तुम पूरी कोशिश करोगे अपने तल पर उतार लेने की। पगडंडियों और संप्रदायों में तुम पाओगे, अनुयायी अपने साधुओं को चला रहा है। जैनियों की पंचायत होती है, वह साधु पर नजर रखती है कि वह कहीं आचरण से भ्रष्ट तो नहीं हो रहा। __तुम कैसे तय करोगे कि वह आचरण से भ्रष्ट हो रहा है कि नहीं? और वह भी राजी है तुमसे कि तुम उसके नियंता हो। तुम मर्यादा तय करते हो, वह अनुसरण करता है। फिर तुम उसे गुरु मानते हो! पहले तुम उसे उतार लेते हो अपने तल पर, अपने से भी नीचे, तभी तुम उसे गुरु मानते हो। गुरु वही है जो तुम्हारी न सुने, जो तुम्हारे तल पर उतरने को राजी न हो; जिसे तुम कुछ भी करो तो अपने तल पर न उतार सको; जिसकी चेतना संगठित हो गई हो एक ऊंचाई के तल पर जहां से कि बिखर न सके। वही उसकी गुरुता है, वही उसका घनत्व है कि वह तुमसे इतना घना है कि तुम उसे बिखरा न सकोगे। तुम उसके पास जाओगे तो तुम्हें ही ऊपर उठना पड़ेगा। हालांकि तुम हर उपाय करोगे। यह कोई जानकारी से करोगे, ऐसा भी नहीं है। यह सब अचेतन प्रक्रिया है। तुम हर उपाय करोगे कि वह तुम्हारे तल पर आ जाए। 103
SR No.002375
Book TitleTao Upnishad Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1995
Total Pages440
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy