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धर्म का मुख्य पथ सरल हैं
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जितना ज्यादा सांप्रदायिक आदमी उतना ही कम धर्म की संभावना रह जाती है। आकाश तो खुला रहता है, लेकिन उसकी आंखें जड़ हो गई होती हैं। अब महावीर खो गए हैं, वह अभी भी उन्हीं की पीठ पर आंख लगाए हुए है। अब वह पीठ भी नहीं है। अब वह चला जा रहा है अंधेरे में। अब अपनी ही कल्पना है।
तुमने कभी खयाल किया, तुम एक खिड़की को देखते रहो, फिर आंख बंद कर लो, तो खिड़की का निगेटिव बनता है आंख में। बस संप्रदाय वैसा ही है। महावीर कभी थे एक महिमावान पुरुष । कभी बुद्ध थे, कभी राम थे, कृष्ण थे, मोहम्मद थे, जिन्होंने जाना। फिर उनके पीछे चलने वाला उनकी पीठ पर आंख लगाए हुए । फिर धीरे-धीरे - धीरे-धीरे -धीरे महावीर तो अनंत में खो गए। अब तुम्हारी आंख में निगेटिव रह गया है। अब भी तुम आंख बंद करते हो तो पीठ दिखाई पड़ती है। और तुम इस पीठ का पीछा कर रहे हो । अब तुम पागलपन में उतरोगे । अब तुम कहीं भी नहीं जा सकते, क्योंकि यह पीठ कहीं है ही नहीं, सिर्फ तुम्हारी आंख में बनी हुई प्रतिमा है। वह भी नकारात्मक प्रतिमा है। पाजिटिव तो खो गया, निगेटिव को तुम लिए बैठे हो। वह तुम्हारे मन में है।
संप्रदाय तुम्हारी व्याख्या, तुम्हारा शास्त्र । संप्रदाय यानी तुम । महावीर के नाम से तुम्हीं बैठे हो अब । बुद्ध के नाम से तुम्हीं बैठे हो । बुद्ध को गए बहुत वक्त हो गया। महावीर को गए बहुत वक्त हो गया। जीसस को खोए अनंत में बहुत समय हो चुका। तुम पूजा किए जा रहे हो। तुम उन मेघों की पूजा कर रहे हो जो बरस चुके । अब खाली आकाश में धुआं रह गया है। जैसे जेट निकलता है कभी आकाश से, जेट तो जा चुका होता है, एक धुएं की लकीर छूट जाती है। ऐसे ही जब भी महावीर, बुद्ध या कृष्ण जैसे पुरुष गुजरते हैं आकाश से, तो वे तो तीव्रता से गुजर जाते हैं, देर नहीं लगती, धुएं की लकीर छूट जाती है; उनके पीछे उनके पदचिह्न छूट जाते हैं। उन पदचिह्नों की पूजा चलती है। तुम उनका अनुसरण करते रहते हो । वही संप्रदाय है।
महावीर जैसे होने का ढंग महावीर के पीछे चलना नहीं है । बुद्ध जैसे होने का ढंग बुद्ध के पीछे चलना नहीं है। क्योंकि बुद्ध किसी बुद्ध के पीछे नहीं चल रहे थे। अगर तुम बुद्ध ही हो जाना चाहते हो तो तुम्हें अपने ही तरह अपने ही मार्ग से स्वभाव को खोज लेना पड़ेगा। जिस दिन तुम स्वभाव को पहुंच जाओगे उस दिन तुम वहीं पहुंच जाओगे जहां कोई भी कभी पहुंचा है। सब बुद्ध जहां पहुंचे, सब जिन जहां पहुंचे, जहां सब अवतार-पैगंबर पहुंचे, वहां तुम भी पहुंच जाओगे। लेकिन पहुंचने का ढंग होगा उस पथ को खोज लेना जो चारों तरफ मौजूद है। तुम्हारा ध्यान ही तुम्हें ले जाएगा। तुम्हारी समाधि ही तुम्हें जोड़ेगी। अनुसरण से कुछ भी न होगा।
'मुख्य पथ (ताओ) पर चल कर मैं यदि तपःपूत ज्ञान को प्राप्त होता, तो मैं पगडंडियों से नहीं चलता। मुख्य पथ पर चलना आसान है; तो भी लोग छोटी पगडंडियां पसंद करते हैं।'
क्यों पसंद करते हैं लोग छोटी पगडंडियां ? छोटी पगडंडियां सुविधापूर्ण मालूम होती हैं। क्योंकि तुम उनसे बड़े होते हो। उन पगडंडियों पर चल कर तुम बड़े मालूम पड़ते हो। और लगता है पगडंडी तुम्हारी कब्जे में है; जहां ले जाना चाहो वहीं जाएगी। तुम मालिक रहते हो। सच तो यह है कि पगडंडी पर तुम नहीं चलते, पगडंडी तुम्हारे पीछे चलती है। क्योंकि पगडंडी मनुष्य की बनाई हुई है। तुम अपने हिसाब से व्याख्या करते जाते हो । पगडंडी तुम्हारे पीछे चलती है। कृष्ण के पीछे तुम चलते हो, ऐसा मत सोचना तुम । तुम पहले कृष्ण की व्याख्या करते हो - व्याख्या तुम्हारी है— फिर अपनी व्याख्या के पीछे तुम चलते हो। इसलिए तो कृष्ण को मानने वाले बहुत हैं, लेकिन सब अलग-अलग ढंग से चलते हैं। क्योंकि सबकी व्याख्या अलग है। निम्बार्क, वल्लभ, रामानुज, वे भक्ति से चलते हैं, और कृष्ण को मानते हैं। गीता से भक्ति निकाल लेते हैं। शब्दों का जाल जमाते हैं; गीता में से भक्ति निकल आती है। फिर वे भक्ति को चलते हैं। वे कहते हैं, कृष्ण के पीछे चल रहे हैं। पगडंडी उनका पीछा कर रही है, क्योंकि पगडंडी वे अपनी निकाल लेते हैं। शंकर और दूसरे अद्वैतवादी कृष्ण से ज्ञान निकाल लेते हैं, ज्ञान का मार्ग