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ताओ उपनिषद भाग ५
किया। भयंकर उपेक्षा की। बात ही नहीं उठाई। इस योग्य भी नहीं माना कि विरोध करें। जिसका हम विरोध करते हैं, उसको भी हम स्वीकार तो करते हैं कि कोई योग्यता है उसकी। जिसकी हम उपेक्षा करते हैं उसको हम इस योग्य भी नहीं मानते कि क्या तुम्हारा विरोध करना! बकवास है सब, इतना भी नहीं कहते हम। हिंदू ऐसे निकल गए हैं तेईस तीर्थंकरों के पास से कि जैसे वे तेईस तीर्थंकर हुए ही नहीं। अगर हिंदू शास्त्रों में देखें तो कोई उल्लेख नहीं आता; कहीं कोई उल्लेख नहीं आता। आश्चर्यजनक है!
मगर अगर हम मनुष्य के मन को समझें तो सब आश्चर्य समझ में आ जाता है। सबकी आंखों पर पट्टियां हैं। हिंदू पट्टी बांधे हुए निकल गए; तीर्थंकर रास्ते पर पड़ते नहीं पट्टी के। फोकस है, बाकी सब अंधकार है। उस फोकस में राम और कृष्ण पड़ते हैं, जैनों के पहले तीर्थंकर ऋषभदेव पड़ जाते हैं, क्योंकि वे हिंदू थे। ऋषभ के मरने के बाद धीरे-धीरे जैन धर्म संगठित हुआ और अलग धारा बनी। जैसे कि जीसस का उल्लेख तो यहूदियों में मिल जाएगा, लेकिन फिर जीसस के बाद जो जीसस के मानने वाले संत हुए उनका कोई उल्लेख नहीं मिलेगा। क्योंकि उनसे कोई संबंध ही न रहा। वह अलग धारा हो गई।
पगडंडियों की तलाश होती है जब कि राजपथ द्वार से फैला हुआ है। गंगा बह रही है, तब भी तुम नल की .. टोटियां खोले बैठे हो, जिनसे बूंद-बूंद पानी भी शायद ही कभी टपकता है। गंगा द्वार से बह रही है, तुम अपने नल के पास बैठे प्रार्थना कर रहे हो कि हे नल, पानी दे! कभी बूंद-बूंद टपकता है। संप्रदाय से बूंद-बूंद पानी भी टपक जाए तो काफी है। क्योंकि उतना पानी भी संप्रदाय में नहीं है।
ऐसा हुआ कि एक यहूदी फकीर के संबंध में बड़ी ख्याति थी कि वह जब बोलता था तो लोगों के मनोभाव को इस तरह छू देता था, उनकी हृदय-तंत्री ऐसी बज उठती थी कि कोई रोता, कोई हंसता; भावावेश पैदा हो जाता था। गांव के एक अमीर आदमी की मृत्यु हुई। जैसा कि अमीर आदमियों के साथ होता है, सारा गांव जी-हजूरी करता था, लेकिन मन ही मन तो ईर्ष्या से भरा था। तो ऊपर से तो लोगों ने कहा बड़ा बुरा हुआ, लेकिन भीतर से प्रसन्न भी हुए कि अच्छा हुआ मरा यह दुष्ट, झंझट मिटी। अमीर आदमी मरा था तो घर के लोगों ने इस सूफी फकीर को बोलने के लिए बुलाया उसकी मृत्यु पर। वह बोला जैसा कि वह सदा बोलता था। उसने बड़ी महिमा का गुणगान किया, लेकिन एक भी आंख गीली न हुई। परायों की तो छोड़ दो, घर के लोगों की भी आंख से आंसू न गिरा।
लोग बड़े चकित हुए। जब फकीर बोल चुका तो एक आदमी ने उससे पूछा कि क्या मामला हुआ आज? सदा तुम भाव-उन्माद से भर देते हो! तुम बोलते क्या हो, हृदय तक छिद जाते हैं तीर, लोग रोते हैं। आज एक आंख गीली नहीं हुई! उस फकीर ने कहा, हम क्या करें? हमारा काम टोंटी खोल देना है। अब पानी हो ही न। टोंटी हमने खोल दी, पानी हो ही न तो हम क्या करें? उसमें हमारा कोई जिम्मा नहीं है।
संप्रदाय की टोंटी खोले तुम बैठे रहो; पानी वहां है नहीं। और वहां संप्रदाय की टोंटी के सामने तुम कितनी ही पूजा करो, कुछ पाओगे न। क्योंकि संप्रदाय आदमी निर्मित है। महावीर तो धर्म के महान पथ पर हैं, महावीर के पीछे चलने वाला महावीर की पीठ पर फोकस लगा कर चल रहा है। वह पथ का उसे पता नहीं है। वही संप्रदाय और धर्म का फर्क है। महावीर तो धर्म में चल रहे हैं। सांप्रदायिक वह है जो महावीर की पीठ देख कर चल रहा है कि वे कहां जा रहे हैं। उसकी नजर पीठ पर लगी है। अनुयायी पीठ देख रहा है, वह राजपथ नहीं जिस पर महावीर चल रहे हैं। बड़ा फर्क है। महावीर की पीठ देख कर तुम यह मत सोचना कि तुम पहुंच जाओगे कभी। क्योंकि महावीर को भी जो ले जा रहा है वही तुम्हें ले जाएगा, लेकिन वह पथ तुम्हें दिखाई नहीं पड़ रहा। और तुम्हारी आंखें अगर बहुत ही ज्यादा जड़ हो गईं महावीर की पीठ पर लगी-लगी, तो फिर तुम्हें वह पथ कभी भी दिखाई न पड़ेगा। तुम इतने सांप्रदायिक हो जा सकते हो कि धर्म को देखने की सुविधा ही समाप्त हो जाए।
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