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- धर्म का मुख्य पथ सरल है
मुसलमान जब कृष्ण को पढ़ता है तो वह सोचता है, यह दावेदार, यह अहंकार है। क्योंकि ज्ञानी कहीं दावा करता है! ज्ञानी तो विनम्र होता है। वह तो कहता है, मैं कुछ भी नहीं हूं। जैसा मोहम्मद कहते हैं कि मैं तो कुछ भी नहीं हूं, उसका एक दूत हूं-एक खबर लाने वाला, एक डाकिया। उसकी चिट्ठी तुम तक पहुंचा दी, बात खत्म हो गई। इससे ज्यादा मेरा कोई अधिकार नहीं है। यह विनम्र आदमी का लक्षण है। यह संतत्व की बात है। यह कृष्ण, यह तो दंभी मालूम पड़ता है। यह तो हद, आखिरी दंभ है। ये उपनिषद, ये तो अहंकारियों की घोषणाएं मालूम पड़ते हैं।
जैन हिंदुओं को पढ़े, नहीं पढ़ पाता। यह सब पागलपन दिखाई पड़ता है। जैन जब गीता को पढ़ता है तो सिवाय महा हिंसा के कुछ भी नहीं दिखाई पड़ती। और यह आदमी कृष्ण जो हिंसा करवाने की सहायता कर रहा है। अर्जुन जैनी मालूम पड़ता है कि कह रहा है कि क्यों मारूं? क्यों हत्या करूं? पहला गांधीवादी। वह यही तो कह रहा है कि मैं हिंसा करने से बचना चाहता है, क्यों मारूं? और अपने ही हैं लोग। और वह भी धन के लिए मारूं? पद के लिए? प्रतिष्ठा के लिए? राज्य के लिए? राज्य किस काम आएगा? वह बड़ी ज्ञान की बातें बोल रहा है।
तो जैनी अगर पढ़े या गांधीवादी अगर पढ़े, खुद गांधी पढ़ते थे तो भी वह अर्जुन ही उनको जंचता है, कि बात तो अर्जुन ही ठीक कह रहा है। गांधी संकोच के वश कह नहीं पाते, लेकिन तरकीब निकालते हैं। कह नहीं पाते, जंचती तो बात अर्जुन की ही है। मगर अब हिंदू हैं गांधी, इसलिए गांधी की मुसीबत है। गांधी की नब्बे परसेंट बुद्धि तो जैन की है। क्योंकि वे गुजरात में पैदा हुए। गुजरात में हिंदू भी जैन हैं। गुजरात की हवा जैन की है। तो यह कह भी नहीं सकते कि कृष्ण गलत हैं। हिंदुओं को चोट पहुंचेगी।
जैनियों ने तो कहा कि कृष्ण गलत हैं, क्योंकि उनको कोई लेना-देना नहीं। उन्होंने नरक में डाला हुआ है। कृष्ण मर कर नरक में गए हैं। अभी भी पड़े हैं-जैनियों के शास्त्रों में। और इस कल्प के आखिर तक पड़े रहेंगे। क्योंकि अर्जुन तो भाग रहा था हिंसा से, महा हिंसा से, महा पातक से। और इस आदमी ने सब तरफ से समझा-बुझा कर...। कितनी कोशिश की अर्जुन ने निकलने की इसके जाल के बाहर! तब तो अठारह अध्याय पैदा हुए। वह पूछता ही गया, वह हर तरफ से कहता गया, मुझे बचाओ, मुझे जाने दो। मगर कृष्ण हिंसा के बड़े से बड़े सेल्समैन मालूम होते हैं। आखिर उसको समझा-बुझा कर पट्टी पढ़ा दी। और वह आदमी इस आदमी के चक्कर में आ गया।
और आखिर घबड़ा कर या परेशान होकर उसने कहा कि ठीक, मेरे भ्रम सब दूर हो गए, अब मैं लड़ता हूं। जैन कैसे पढ़ सकता है हिंदू की गीता को?
गांधी कहते हैं कि यह गीता तो सिर्फ कहानी है; यह युद्ध असली में हुआ नहीं। क्योंकि अगर युद्ध हुआ है तब तो फिर कृष्ण ने हिंसा करवाई। असली में युद्ध हुआ ही नहीं; यह तो एक पुराण कल्पना है। और युद्ध असली में कौरव-पांडव के बीच नहीं है, युद्ध तो बुराई और भलाई के बीच है। बस, तब रास्ता गांधी ने निकाल लिया। अब कोई हिंसा नहीं। बुराई को मारने में कोई हिंसा है? यह सत और असत के बीच युद्ध है। इस युद्ध में वास्तविक खून नहीं गिरा है। इसलिए कृष्ण जोर दे रहे हैं कि तू काट! यह असलियों को काटने के लिए जोर नहीं दे रहे हैं। यह तो सिर्फ असत को, बुराई को! तो पुराण-कथा कह कर रास्ता निकाल लिया। महाभारत एक सत्य है जो हुआ; उस सत्य को भी झुठला दिया।
कोई एक पंथ को मानने वाला दूसरे पंथ को नहीं पढ़ सकता है। हिंदुओं ने जैन तीर्थंकरों का उल्लेख ही नहीं किया, सिर्फ एक पहले को छोड़ कर। और पहले का भी उल्लेख इसीलिए किया है कि पहला करीब-करीब हिंदू रहा होगा। क्योंकि वह हिंदू घर में पैदा हुआ था। अभी जैन पैदा नहीं हुए थे। तो पहले का उल्लेख है, ऋषभदेव का वेदों में। फिर इसके बाद किसी का उल्लेख नहीं करते वे। तेईस तीर्थंकर, जो जैनों के लिए महिमापुरुष हैं, जिनसे ऊंचा कुछ हो नहीं सकता, इसी पृथ्वी पर, इसी पृथ्वी खंड पर होते हैं, लेकिन हिंदुओं ने अपनी किताबों में उल्लेख भी नहीं