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ताओ उपनिषद भाग ५
में। तुम्हारी दुकान बंद नहीं होती, वह तुम्हारे मंदिर में भी खुली है। और तुम्हारा दुकानदार वहां भी अपने काम में लगा है। इस धोखे को ठीक से पहचानो। ये पगडंडियां हैं जिनसे तुम भटके हो।
. सत्य को जानना हो तो किसी भी शास्त्र की कोई जरूरत नहीं है। क्योंकि शास्त्र तो शब्द ही देगा। शब्दों से कैसे स्वाद आएगा? शब्दों में कोई स्वाद नहीं। शब्दों से कैसे गंध आएगी? शब्दों में कोई गंध नहीं। शब्दों से ज्यादा निर्जीव कोई चीज जगत में तुमने देखी है? कोई शब्द जिंदा नहीं होता, सभी शब्द मरे हुए हैं। हवा में पैदा हुई लकीरें
खो जाती हैं। बबूले हैं पानी में बने, वे भी शब्दों से ज्यादा वास्तविक हैं। शब्द तो हवा में बने बबूले हैं। पानी के बबूले में तो कम से कम पानी की एक बड़ी झीनी और पारदर्शी दीवार होती है, शब्द में उतनी भी दीवार नहीं है। वह हवा का ही बबूला है; हवा में उठी लहर है, खो जाएगी। सभी शास्त्र शब्द हैं। शास्त्रों को तुम पकड़ कर बैठे हो। सत्य की तुम्हें कोई आकांक्षा नहीं है। शास्त्र पगडंडियां हैं। सत्य ताओ का राजपथ है। वह खुला है। सत्य को जानना हो तो ठीक उलटे चलना पड़ेगा उस चाल से, जो तुम शास्त्र को जानने के लिए चलते हो।
शास्त्र को जानना हो तो कुशल स्मृति चाहिए, याददाश्त चाहिए, तर्क-बुद्धि चाहिए, विचार की क्षमता चाहिए, मनन-चिंतन चाहिए, गणित-तर्क चाहिए। सत्य को जानना हो तो ये कुछ भी नहीं चाहिए-न मनन, न चिंतन, न तर्क, न बुद्धि। सत्य को जानना हो तो शून्यता चाहिए। सत्य को जानना हो तो तुम दर्पण की भांति हो रहो, ताकि सत्य का प्रतिफलन बन सके। तुम्हारा भराव नहीं चाहिए, तुम्हारा खालीपन चाहिए। इसलिए तो लाओत्से कहता है कि जो सीखने से मिल जाए वह ज्ञान नहीं। और संत सिखाते नहीं, संत भुलाते हैं। संत तुम्हें एक ही बात सिखाता है कि कैसे तुम सब सीखे हुए को हटा दो। संत तुम्हारे मन को हटाता है, ताकि तुम्हारी आंख पर बंधी हुई कोल्हू के बैल जैसी जो पट्टियां हैं वे हट जाएं; तुम सब तरफ खुले होकर देख सको।
हिंदू गीता को पढ़ सकता है, लेकिन कुरान को नहीं। यह कोल्हू का बैल है, एकतरफा है। गीता तो पढ़ सकता है, क्योंकि उतनी आंख हिंदुओं ने इसकी खुली छोड़ी है; बाकी दोनों तरफ पट्टियां बंधी हैं। उन पट्टियों में फिर मुसलमान, ईसाई, जैन, बौद्ध, सब छिप गए हैं।
मुसलमान कुरान पढ़ सकता है, गीता नहीं। इसका यह मतलब नहीं है कि नहीं पढ़ सकता। पढ़ सकता है, मुसलमान गीता पढ़ सकता है, क्योंकि वह भी भाषा पढ़ सकता है। भाषा में क्या अड़चन है? गीता उर्दू में लिखी है, अरबी में लिखी है, पढ़ सकता है। लेकिन हृदय पर कहीं कोई चोट न पड़ेगी। हां, अनेक बार गीता में भूलें दिखाई पड़ेंगी। अनेक बार, जगह-जगह, जगह-जगह गीता में भूलें दिखाई पड़ेंगी। जब कृष्ण कहेंगे, सर्वधर्मान परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज, सब छोड़ कर मेरी शरण आ, मुसलमान हंसेगा। अहंकार हो गया। यह आदमी कुफ्र बोल रहा है। पापी है। ऐसे मंसूर को ही तो मारा मुसलमानों ने। वह ऐसी ही बकवास कर रहा था, कृष्ण जैसी। कह रहा था: अनलहक, अहं ब्रह्मास्मि। हिंदू की भाषा बोल रहा था। मुसलमान को नहीं जंचा। यह बात ही गलत है। तुम खुदा के चरणों तक पहुंच सकते हो, खुदा कभी नहीं हो सकते। यह मुसलमान की आंख है।
हिंदू कहते हैं कि अगर चरणों तक ही पहुंच पाए और खुदा न हो पाए तो पहुंच ही न पाए। बात अधूरी रह गई। यात्रा पूरी न हुई। तो जब तक अहं ब्रह्मास्मि का उदघोष न हो जाए, जब तक तुम्हारा पूरा तन-प्राण न कह दे कि मैं ब्रह्म हूं, तब तक अधूरी है बात। जब हिंदू कुरान को पढ़ता है तो वह मुस्कुराता है। वह कहता है, ठीक है, कामचलाऊ है, कुछ बड़ी गहरी बात नहीं है। क्योंकि मोहम्मद कहते हैं, मैं उसका केवल पैगंबर हूं, उसका संदेशवाहक हूं, उसका दूत हूं। हिंदू का मन कहता है कि दूत की क्या सुनना? कृष्ण की ही क्यों न सुनें जो कहते हैं, अहं ब्रह्मास्मि, मैं स्वयं वही हूं। दूत से गलती हो सकती है। मध्यस्थों को क्यों बीच में लें? दलालों की क्या जरूरत? और जिनकी इतनी ही हिम्मत नहीं है कहने की कि मैं वही हूं इनकी बात का भरोसा क्या? इनकी अथारिटी क्या?
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