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धर्म का मुख्य पथ सरल हैं
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मनुष्य ने बनाए हैं। और जो मनुष्य ने बनाया है, वह सत्य तक न ले जा सकेगा। मनुष्य के बनाए को तो छोड़ना है। मनुष्य के बनाए से तो पार उठना है। मनुष्य के बनाए से तो हटना है।
लेकिन जो भी मनुष्य ने बनाया है वह हमें आकर्षित करता है। क्योंकि वह हमारे मन के अनुकूल बैठता है । वह हमनें बनाया है; वह हमारा ही खिलौना है। मंदिरों में जो भगवान की मूर्तियां हैं वे आदमी की बनाई हैं। उनके सामने हम झुक सकते हैं। क्योंकि हमें पता है कि हम झुक किसी के भी सामने नहीं रहे हैं; अपनी ही बनाई हुई मूर्ति है। झुकना झूठा है। समर्पण भ्रांति है। क्योंकि इस मूर्ति को हम ही खरीद लाए थे और हम ही ने प्रतिष्ठित किया है। और जिस दिन चाहें इसको उठा कर फेंक दे सकते हैं। यह समर्पण खेल है; यह वास्तविक नहीं है । और मंदिर की मूर्ति कुछ भी न कह सकेगी। अगर हम इसे उठा कर मंदिर के बाहर फेंक दें तो क्या करेगी मंदिर की मूर्ति ?
लेकिन इसके सामने हम झुकते हैं। और अस्तित्व का परमात्मा चारों तरफ है; वहां हम कभी नहीं झुकते । क्योंकि वहां जो झुका वह फिर कभी उठ न सकेगा। वहां जो झुका वह गया। वहां जो झुका वह खोया। वहां से वापस आने की कोई घड़ी नहीं है । उस मंदिर में प्रवेश हुआ कि लौटना नहीं होता। उस मंदिर में प्रवेश ही तब होता है जो चीज लौट सकती थी उसे तुम मंदिर के बाहर छोड़ जाते हो। वह अहंकार है जो वापस लौट सकता था।
लेकिन पत्थर की मूर्तियां कहीं तुम्हारे अहंकार को मिटा सकेंगी? पत्थर की मूर्तियों की सामर्थ्य क्या है ? तुमने ही गढ़ी हैं। और आदमी बड़ा चालबाज है। अपनी ही गढ़ी मूर्तियों के सामने घुटने टेक कर खड़ा होता है। यह प्रार्थना नहीं है, प्रार्थना का अभिनय है। धोखा किसको दे रहे हो तुम? सारा अस्तित्व तुम पर हंसता है। छोटे बच्चों को तो तुम मुस्कुराते हो अगर वे अपने गुड्डा-गुड्डी का विवाह रचा रहे हों । तो तुम हंसते हो, कहते हो, क्या कर रहे पागलपन! सोचते हो मन में कि बच्चे हैं। लेकिन तब, जब तुम रामलीला खेलते हो और एक लड़के को राम बना लेते हो और एक लड़की को सीता बना देते हो और तुम इन अभिनेताओं के चरणों में सिर रखते हो और जुलूस निकालते हो, शोभा-यात्रा, बारात जा रही है राम की और तुम बड़े उत्तेजित हो उठते हो; तुम छोटे बच्चों से कुछ भिन्न कर रहे हो? कुछ भेद है? तुम्हारी इस शोभा यात्रा में और छोटे बच्चों की बारात में कुछ फर्क है ? खेल-खिलौने हैं। तुम बूढ़े हो गए, फिर भी बचपना न गया ।
मंदिरों में तुम झुकते हो, वह बचपना है। अस्तित्व के सामने झुको । वहां तुम अकड़े खड़े रहते हो। वहां तुम अपनी चलाने की कोशिश करते हो। और तुम जानते हो कि वहां अगर तुम झुके तो तुम गए। क्योंकि वहां झुकना वास्तविक ही हो सकता है। वास्तविक परमात्मा के सामने झुकना भी वास्तविक होगा। वहां असली सिक्के ही स्वीकार किए जाते हैं। नकली परमात्मा के सामने झुकोगे, वहां नकली सिक्के ही चलते हैं, वहां असली का कोई सवाल ही नहीं है। तुम्हारे मंदिर, तुम्हारी मस्जिद, तुम्हारे गुरुद्वारे तुम्हारे बनाए हुए हैं।
और परमात्मा का मंदिर तो मौजूद ही है। तुम नहीं थे तब भी था; तुम नहीं रहोगे तब भी रहेगा। यह आकाश ही उसका गुंबज है। यह पृथ्वी ही उसकी आधारशिला है। उसे बनाने की कोई जरूरत नहीं है । वह बना ही हुआ है। वह तुमसे ज्यादा प्राचीन है। वह तुमसे ज्यादा सनातन है। तुम उससे ही आए हो। तुम उसी में वापस जाओगे। लेकिन वहां सचाई का सिक्का ही चल सकता है।
तुम धार्मिक होना नहीं चाहते, इसलिए तुमने मंदिर बनाए हैं। वह तुम्हारी तरकीब है बचने की । तुम जो हो वैसे ही रहना चाहते हो। उसमें ही तुमने एक कोना निकाल कर मंदिर भी बना दिया है। लेकिन वह तुम्हारे होने का ही हिस्सा है। वह तुम्हारी बेईमानी और तुम्हारे धोखे का ही हिस्सा है। तुम अपने को समझा रहे हो। और तुमने खूब गहरा धोखा दे लिया है। मंदिर जाकर तुम समझ लेते हो, बात पूरी हो गई, हो गए तुम धार्मिक। कभी एक व्रत-उपवास कर लिया। कभी चार पैसे मंदिर में चढ़ा दिए। वह भी तुम चार चढ़ाते हो चार हजार मिलने की आशा