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ताओ उपनिषद भाग ५
कुशलता से नाच रही हो। मीरा का नाच तो अनगढ़ होगा; किसी विद्यापीठ में सीखा तो नहीं। यह नाच तो मौज का है। यह नाच किसी को दिखाने को थोड़े ही है। और मीरा तुम्हारे सामने थोड़े ही नाच रही है, मीरा अपने परमात्मा के सामने नाच रही है। वहां कला नहीं पहचानी जाती, वहां हृदय की पहचान है। और मीरा का नाच एक प्रार्थना है, एक पूजा है। लेकिन ऊपर से तो एक जैसा है।।
तो लोग मुझसे कहते हैं, नाचने से क्या होगा? कहीं नाचने से मिलता होता तो नाचने वालों को मिल जाता। ये लोग क्या कह रहे हैं? ये यह कह रहे हैं कि ये इतनी सरल बातें हैं कि इनसे नहीं हो सकता। कोई उलटी बात बताएं, कोई कठिन बात बताएं, जिसमें चुनौती हो।
इन नासमझों की वजह से दुनिया में ऐसी पद्धतियां भी विकसित हो गई हैं जिनका आकर्षण कुल इतना है कि वे बहुत कठिन हैं, दुर्गम हैं। उनसे कोई कभी नहीं पहुंचता कहीं, लेकिन उनकी दुर्गमता के कारण आकर्षण है। क्योंकि अहंकारी उनकी तरफ आंदोलित हो जाते हैं। इसे बहुत ठीक से समझ लेना। अहंकार चाहता है चुनौती, संघर्ष का मौका, लड़ने का उपाय, जीत की सुविधा, कि वह बता दे कि मैं जीत गया। तब छोटे बच्चे से थोड़े ही तुम कुश्ती लड़ोगे! अगर एक छोटा बच्चा और गामा को चुनौती दे दे कि आओ, लड़ो! तो गामा चुपचाप वहां से चला जाएगा। इससे लड़ कर फायदा क्या? इसको अगर जीत भी लिया तो लोग हंसेंगे कि इसमें जीतने का कोई सवाल न था। और अगर हार गए तो मारे गए। मुस्कुरा कर बच्चे की पीठ थपथपा कर गामा चला जाएगा। वह चुनौती नहीं है।
अहंकार के लिए समर्पण तो बच्चे जैसा है। उससे चुनौती नहीं मिलती, उससे लड़ कर कोई सार नहीं है। कोई कठिन बात बताओ! कोई बात जो बड़ी दुर्गम हो। कोई बात जो विरले ही कर सकें। कोई बात जो तलवार की धार पर चलने जैसी हो। तब! तब तुम्हें लगेगा कि हां, करने जैसा है।
और यही करने जैसा नहीं है। करने जैसा तो वही है जहां कोई चुनौती नहीं है, जहां कानों-कान किसी को खबर भी न पड़ेगी कि तुम कुछ किए, जो अक्रिया जैसी है। जो विश्राम है, जहां समर्पण है, और बहने की तैयारी है, और नदी को कहना है कि अब तू जहां ले जाए, तेरी जो मर्जी! तब सरल है।
अब हम लाओत्से के सूत्र समझने की कोशिश करें। 'मुख्य पथ (ताओ) पर चल कर मैं यदि तपःपूत ज्ञान को प्राप्त होता, तो मैं पगडंडियों से नहीं चलता।' .
जब ज्ञान उपलब्ध हो रहा हो और जीवन तैयार हो बांटने को, देने को, तब भी तुम पगडंडियां चुनते हो। ताओ है धर्म। ताओ है स्वभाव। संप्रदाय हैं पगडंडियां। अगर मैं तुम्हें धर्म दं, तुम लेने को राजी नहीं। तुम हिंदू धर्म चाहते हो। तुम इसलाम धर्म चाहते हो। तुम बौद्ध धर्म चाहते हो। मैं नानक पर बोल रहा था कुछ दिन पहले तो कुछ सिक्ख दिखाई पड़ते थे। वे पहले भी कभी दिखाई नहीं पड़े.थे, उसके बाद फिर नदारद हो गए, फिर दिखाई नहीं पड़ते। मैं महावीर पर बोलता हूं तो जैनी शक्लें मुझे दिखाई पड़ने लगती हैं। महावीर पर नहीं बोलता हूं, वे विलीन हो जाते हैं, वे फिर नहीं दिखाई पड़ते। लोगों को धर्म से कोई प्रयोजन नहीं है, पगडंडियों से प्रयोजन है। मार्ग से कोई प्रयोजन नहीं है, मार्गों से प्रयोजन है। धर्म तो एक है; संप्रदाय अनेक हैं। एक से कोई नाता नहीं है, अनेक की आकांक्षा है।
लोग जानना चाहते हैं कि जैन धर्म क्या है? हिंदू धर्म क्या है? इसलाम धर्म क्या है?
धर्म भी कहीं हिंदू, मुसलमान और इसलाम होता है? धर्म का भी कोई विशेषण है? नाम है? लेकिन ये जो संप्रदाय हैं ये मन को लुभाते हैं। और सभी संप्रदाय कठिन हैं। धर्म बिलकुल सरल है। धर्म ऐसा सरल है कि जैसे घर के सामने से गंगा बह रही हो और तुम प्यासे खड़े हो। संप्रदाय बहुत कठिन है। कठिन होने का कारण है। क्योंकि धर्म तो स्वभाव है अस्तित्व का, संप्रदाय मनुष्य-निर्मित है। धर्म मनुष्य-निर्मित नहीं है, धर्म ने ही मनुष्य को निर्मित किया है। धर्म से ही मनुष्य आया है। वह उसका मूल स्रोत और उदगम है। लेकिन संप्रदाय मनुष्य-निर्मित हैं। वे
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