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________________ ताओ उपनिषद भाग ५ जाओ तो कलं भी तुम क्रोध करोगे, कल भी पछताओगे। और तुम दोहराओगे वही-वही। पुनरुक्ति का अर्थ है कि हम गोल-गोल घूम रहे हैं। वहीं से चलते हैं, वहीं पहुंच जाते हैं। फिर चलने लगते हैं, फिर पहुंच जाते हैं। लेकिन आंख पर कोई गहरी पट्टी है। और वह पट्टी यह है कि आंख सब दिशाओं में एक साथ नहीं देख सकती। मन सब दिशाओं में एक साथ नहीं देख सकता, मन एक दिशा में ही देख सकता है। मन वन-डायमेंशनल है, एक आयामी है। और चेतना मल्टी डायमेंशनल है, बहुआयामी है। तो जब तक तुम मन को न हटा दोगे तब तक तुम बहुआयामी राजपथ को न देख पाओगे, जो सब तरफ खुला है। जहां कहीं कोई दीवार भी नहीं, कोई बाधा भी नहीं। बस तुम उठो और चलो, और तुम उस पर ही हो। ध्यान बहुआयामी है। ध्यान और मन का यही फर्क है। मन एक तरफ देखता रहता है। जब क्रोध करता है तो क्रोध को ही देखता है, करुणा को नहीं देख पाता। जब प्रेम करता है तो प्रेम को ही देखता है, घृणा को नहीं देख पाता। जब प्रसन्न होता है तो प्रसन्नता को देखता है, अप्रसन्नता को नहीं देख पाता, खिन्नता को नहीं देख पाता। जब खुश होता है तो खुशी को देख पाता है, उदासी को नहीं देख पाता, जो कि किनारे ही खड़ी है, जो कि पास ही खड़ी . है, जो कि खुशी का हिस्सा है, जो कि उसका दूसरा पहलू है। विपरीत को नहीं देख पाता, बस एक को देख पाता है। जैसे ही तुम मन को हटा कर रख देते हो और तुम्हारी चेतना के बहुआयामी द्वार खुलते हैं, तुम सब एक साथ देख पाते हो-युगपत। खुशी आती है तो उसके पीछे छिपा हुआ दुख भी तुम देख पाते हो। तब खुशी खुशी नहीं रह जाती, दुख दुख नहीं रह जाता। दुख आता है तो उसमें छिपे सुख को भी तुम देख पाते हो। रात तुम्हें सुबह दिखाई पड़ती है, भरी दुपहरी में तुम्हें रात दिखाई पड़ती है; क्योंकि वे दोनों एक हैं। तब तुम्हारे दुख में पीड़ा नहीं रह जाती, तब तुम्हारे सुख में उत्तेजना नहीं रह जाती तब तुम जानते हो कि सुख दुख है, दुख सुख है। तब तुम दोनों से दूर अलग हो जाते हो। तब तुम स्वभाव में ठहर जाते हो।। स्वभाव न तो सुख है, न दुख। स्वभाव परम शांत, परम मौन, परम विराम, विश्राम है, जहां सब उत्तेजनाएं खो गईं—प्रीतिकर, अप्रीतिकर। यह स्वभाव तुम्हारे पास मौजूद है। लेकिन मन तुम्हें पगडंडियां सुझाता है। और मन कहता है, यह मार्ग तो बहुत लंबा है, मैं तुम्हें छोटा शार्टकट बता देता हूं, ऐसे चले जाओ, जल्दी पहुंच जाओगे। छोड़ो रास्ते को, मैं तुम्हें शार्टकट, छोटा सा सूक्ष्म रास्ता बता देता हूं। मन हमेशा शार्टकट खोज रहा है। और ध्यान रखना, परमात्मा की तरफ कोई शार्टकट नहीं है। जो भी परमात्मा की तरफ छोटा रास्ता खोज रहा है...। मेरे पास लोग आते हैं। वे कहते हैं, कोई ऐसी तरकीब बता दें कि जल्दी हो जाए। मन हमेशा जल्दी कर रहा है। और तुमने जल्दी की कि तुम हमेशा गलती करोगे। धैर्य चाहिए, जल्दी नहीं। तुम्हारी जल्दी के कारण तुम मन की अड़चन में पड़ जाते हो, मन की उलझन में पड़ जाते हो। और मन कहता है, यह जल्दी का रास्ता है, उस रास्ते पर तो बहुत वक्त लगेगा। इतना बड़ा रास्ता है, तुम जल्दी न पहुंच पाओगे। जिसके ओर-छोर का पता नहीं है, आदि-अंत का कोई पता नहीं है, इतने विराट स्वभाव में उतर कर तुम खो जाओगे। तुम कहां सागर में अपनी नौका उतार रहे हो! मैं तुम्हें छोटी सी नहर बता देता हूं, इसमें यात्रा सुगम होगी, सुरक्षित होगी, डूबने का डर न होगा। मन तुम्हें सुरक्षा का आश्वासन देता है। उसी आश्वासन में तुम भटक जाते हो। मन भरोसे दिलाने में बड़ा कुशल है। और बार-बार तुम भूल जाओ और बार-बार भटको, तो भी मन भरोसे दिलाता है, फिर भी तुम उसकी मान लेते हो। तो मान लेने के तुम्हारे भीतर एक ही कारण है कि तुम भी जल्दी की इच्छा कर रहे हो। इसलिए मैं साधकों को कहता हूं कि तुम जल्दी की इच्छा छोड़ देना, तो ही तुम स्वभाव के मार्ग से चल सकोगे। जल्दी शैतान की। जल्दी जिसने की वह शैतान के पास पहुंच जाएगा। जो धैर्य से चला वही परमात्मा तक पहुंचता है; 94
SR No.002375
Book TitleTao Upnishad Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1995
Total Pages440
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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