________________
धर्म का मुख्य पथ सरल है
लेकिन फिर सुबह चार बजे के करीब उसे लगा कि यह आदमी उलटी-सीधी बातें सोच रहा है, कहीं ऐसा न हो कि घोड़ा चला जाए। फिर आया। उसने पूछा कि कहो, जाग रहे हो? बिलकुल जाग रहा हूं। अब क्या सोच रहे हो? उसने कहा, यही सोच रहा हूं कि मैं यहां बैठा हूं, ताला भी पड़ा है; घोड़ा चोरी कैसे चला गया?
कुछ लोग हैं जो सोचते ही रहते हैं और घोड़ा ही चोरी नहीं चला जाता, जिंदगी चोरी चली जाती है। वे खड़े-खड़े सोचते ही रहते हैं, भीतर सारी आत्मा चोरी चली जाती है। वे खड़े-खड़े बड़ी ऊंची बातें विचार करते रहते हैं, और सब गंवा देते हैं। मौत के क्षण में वे पाते हैं कि मैं इतना सोच-विचार वाला, सयाना आदमी, इतना समझदार, कुशल, कोई मुझे धोखा न दे सके एक कौड़ी का, और मैं बैठा रहा और सारी संपदा गंवा दी। घोड़ा चोरी ही चला गया! आत्मा ही चोरी चली गई!
समझदारी से धर्म का कोई संबंध नहीं है-उस समझदारी से जिसे तुम समझदारी समझे बैठे हो। तुम्हारी समझदारी तो तुम्हारे पागलपन का एक हिस्सा है। तुम्हारे प्रश्न भी तुम्हारी विक्षिप्तता से उठते हैं और तुम्हारे उत्तर भी तुम्हारे मनगढ़त होते हैं। तुम्हारे उत्तर हल नहीं करते, ज्यादा से ज्यादा राहत देते हैं। तुम्हारे उत्तर सिर्फ आशा बंधाते हैं कि करीब आ रहा है हल। हल कभी करीब नहीं आता। क्योंकि हल तो केवल उन्हीं को मिलता है जो जीवंत ऊर्जा से उसे हल करते हैं। हल तो केवल उन्हीं को मिलता है जो किसी गहन प्रक्रिया से गुजर कर अपने को रूपांतरित करते हैं। हल तो उन्हीं को मिलता है जो मन की पगडंडियों को हटा कर रख देते हैं और स्वभाव के मार्ग पर चल पड़ते हैं। मन पगडंडियां देता है। और स्वभाव का राजपथ तुम्हारे चारों तरफ फैला हुआ है। सब तरफ वही है। ताओ यानी स्वभाव। लाओत्से उसे ताओ कहता है, वेद ऋत, बुद्ध धर्म।
धर्म शब्द बड़ा प्रीतिकर है। उसके अनेक अर्थ होते हैं; पर गहरे से गहरा अर्थ होता है स्वभाव। जैसे हम कहते हैं, अग्नि का धर्म है गर्म होना, पानी का धर्म है नीचे की तरफ बहना। वह उसका स्वभाव है। और धर्म का एक अर्थ बड़ा महत्वपूर्ण है और वह यह है कि जो सबको धारण किए है, जो सभी को सम्हाले है। जो सभी को सम्हाले है वह सभी के भीतर होगा, धागे की तरह पिरोया होगा हर माले में, हर माला के मनके में।।
जहां भी तुम देखते हो वहीं राजपथ खुला है। अनंत-असीम वह मार्ग है। सीधा और सरल है कि तुम उसी पर बैठे हुए हो। उस मार्ग को पाने के लिए तुम्हें रत्ती भर चलना नहीं है। लेकिन मन सुझाता है पगडंडियां। वे पगडंडियां कहीं भी नहीं जातीं, वे वर्तुलाकार घूमती हैं। तुम मन का निरीक्षण करो और समझ जाओगे।
मन वर्तुलाकार घूमता है, कोल्हू के बैल की तरह घूमता है। कोल्ह के बैल को भी लगता है कि काफी यात्रा हो रही है। क्योंकि कोल्हू के बैल को कोल्हू चलाने वाला बड़ी व्यवस्था में रखता है; उसकी दोनों आंखों पर पट्टियां बांध देता है। उसको आस-पास तो दिखाई ही नहीं पड़ता, बस सामने ही दिखाई पड़ता है। तो वह यह भी अंदाज नहीं लगा सकता कि गोल-गोल घूम रहा है। नहीं तो वह भी खड़ा हो जाए। अगर बैल की आंख पर पट्टियां न हों तो तुम उसे कोल्हू में नहीं जोत सकते। क्योंकि वह कहेगा, यह क्या पागलपन है! वह भी समझ लेगा कि यह क्या पागलपन है कि मैं गोल-गोल, यहीं-यहीं घूमता रहूं। वह खड़ा हो जाएगा। आंख पर इसीलिए पट्टी बांधते हैं ताकि वह किनारे न देख सके। सामने देखता है; उसको दिखाता है हमेशा कि मार्ग सीधा है, कहीं जा रहा है वह। बैल को भी भरोसा दिलाना पड़ रहा है कि तुम कहीं पहुंच रहे हो, कोई मंजिल करीब आ रही है, ऐसे ही बेकार नहीं चल रहे हो।
ऐसे ही तुम्हारे मन पर पट्टियां हैं। मन भी किनारे नहीं देख पाता, मन भी आगे ही देखता है। मन को तुम जरा समझने की कोशिश करना। तो ठीक कोल्हू के बैल जैसी हालत है। घूमता है चक्कर में, लेकिन सोचता है कि कहीं पहुंच रहे हैं। कल भी तुमने क्रोध किया था, परसों भी तुमने क्रोध किया था। परसों भी पछताए थे, कल भी पछताए थे। आज भी क्रोध करोगे और आज भी पछताओगे। और अगर उस सौभाग्य का उदय न हुआ जिससे तुम जाग
93