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________________ ताओ उपनिषद भाग ५ कोई रोक रहा है, न कोई द्वार बंद है। लेकिन तुम ऐसे जकड़े हो अपने भीतर, तुम्हारी जकड़न ही तुम्हारे पैरों को नहीं उठने देती। नाच तो दूर, चलना ही मुश्किल है। चलना भी दूर, उठना ही मुश्किल है। क्योंकि जहां तुम बैठे हो, तुम सोचते हो, वहां खजाना गड़ा है। वह खजाने की आशा तुम्हें जकड़े हुए है। तुम जैसे हो, तुम सोचते हो कि यहां कुछ मिलने को है। वह मिलने की आशा तुम्हें हटने नहीं देती। तुम किसी वासना से भरे हो, इसलिए संसार को, भ्रम को, झूठ को तुमने अपना घर बना लिया है। फिर तुम चर्चा जरूर करते हो मार्ग की, सत्य की, धर्म की, लेकिन कभी चलते नहीं। तुम चर्चा से ही हल कर लेते हो। तुम बैठे-बैठे सोचते ही रहते हो। ऐसा हुआ एक गांव में, एक धनपति के पास एक बहुत कीमती घोड़ा था। वह सदा डरा रहता था, कहीं घोड़ा चोरी न चला जाए, क्योंकि हजारों की आंखें उस घोड़े पर थीं। तो एक दार्शनिक को, जो उसके पड़ोस में ही रहता था, उसने पूछा कि इसको बचाने के लिए मैं क्या करूं? क्योंकि मैं रात सो भी नहीं पाता; यही चिंता लगी रहती है कि घोड़ा अस्तबल में है या गया! उस दार्शनिक ने कहा, घबड़ाओ मत। मैं अनिद्रा के रोग से पीड़ित हूं, मुझे नींद आती ही नहीं। तो अगर तुम्हें कोई पहरेदार रखना हो तो तुम मुझसे बेहतर पहरेदार न पा सकोगे। मैं वैसे ही पहरा देता रहता हूं घर में घूम-घूम कर, . उठ-उठ कर, क्योंकि नींद मुझे आती नहीं। इतनी चिंताएं हैं, सोए भी आदमी तो कैसे सोए? और इतने सवाल हल करने हैं। और जिंदगी एक पहेली है। और जब तक उत्तर न मिले तब तक विश्राम कैसा? दार्शनिकों की जैसी गति होती है। ऐसा दार्शनिक खोजना मुश्किल है जो अनिद्रा से पीड़ित न हो। क्योंकि जब तुम बहुत सोचोगे, व्यर्थ की उलझनों में उलझोगे, तो विश्राम असंभव हो जाता है। . धनपति बहुत प्रसन्न हुआ। उसने कहा कि तुम क्या चाहोगे, मैं वह तुम्हें दूंगा तनख्वाह। मैं कम से कम सो सकूँ। तुम आज ही पहरे पर आ जाओ। पहरे पर आ गया दार्शनिक, बैठ गया आकर। ताले पड़े हैं अस्तबल में और वह बाहर सीढ़ियों के पास बैठा है, सोच रहा है। पहला ही दिन है पहरेदार का, और पहरेदार एक दार्शनिक है, तो धनपति पूरा आश्वस्त नहीं है। थोड़ा संदिग्ध है। क्योंकि यह आदमी कोई कृत्य का आदमी नहीं है, कुछ कर सके ऐसा आदमी नहीं है। सोच भला सकता हो, लेकिन सोचने का कोई लेना-देना नहीं है अगर घोड़ा चोरी चला जाए तो। यह कहीं बैठा-बैठा सोचता ही न रहे। तो उठा एक बार रात, आधी रात उठ कर गया, जागा हुआ देख कर प्रसन्न हुआ; कहा, क्या कर रहे हो? दार्शनिक ने कहा, एक बड़ी उलझन आ गई है। सोच रहा हूं कि लोग जब खीली ठोकते हैं दीवार में, तो दीवार के जिस हिस्से में खीली प्रवेश करती है वह हिस्सा चला कहां जाता है? बड़ी जटिल समस्या है, और हल नहीं मिल रहा है। धनपति ने कहा-खुशी से कहा बहुत-कि सोचते रहो, मगर जागे रहना। और धनपति ने सोचा कि यह जागा ही रहेगा; ऐसी उलझनों वाला आदमी सो कैसे सकता है? अब यह हल भी कैसे होगी? घड़ी भर बाद लेकिन उसे फिर बेचैनी लगी; क्योंकि आदमी भरोसे का नहीं है। और जो ऐसी फिजूल की बातें सोच रहा है, कहीं ऐसा न हो कि सोचता ही रहे और कोई घोड़ा ले जाए। वह फिर आया। उसने पूछा कि क्या कर रहे हो? जागे हुए हो? कहा, बिलकुल जागा हुआ हूं, नींद तो मुझे आती ही नहीं। अब सवाल यह है कि टूथपेस्ट को दबाते हैं तो बाहर आ जाता है, फिर भीतर क्यों नहीं डाल सकते? धनपति ने कहा, सोचते रहो, मगर जागे रहना। और धनपति बड़ा प्रसन्न हुआ कि यह सोने वाला है ही नहीं, क्योंकि अब जो टूथपेस्ट को दबा कर निकल आता है उसको वापस कैसे डालना ऐसी उलझन में पड़ा है, यह जिंदगी नहीं सो पाएगा। 92
SR No.002375
Book TitleTao Upnishad Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1995
Total Pages440
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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