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________________ त्य सरल है। क्योंकि सत्य स्वभाव है। और स्वभाव का मार्ग सभी जगह है। पंखुड़ी-पंखुड़ी पर, तारे-तारे में, झरनों में, पहाड़ों में, पशुओं में, पक्षियों में, आदमियों में स्वभाव ऐसे ही पिरोया हुआ है जैसे मनके पिरोए हों धागे में। हर मनके के भीतर धागा है, ऐसे ही हर जीवन के भीतर स्वभाव का मार्ग है। उसे पाना कठिन नहीं; क्योंकि तुम उसे पाए ही हुए हो। वस्तुतः उसे खोना ही कठिन है। उस पर चलना भी कठिन नहीं; चलना अति आसान है। आसान कहना भी ठीक नहीं, क्योंकि आसान से भी ऐसा लगता है कि कुछ कठिनाई से संबंध होगा। कठिनाई से कोई संबंध ही नहीं है। अगर कठिन हो तो तुम हो। मार्ग तो सरल है। जटिल हो तो तुम हो। नहीं चल पाते तो इसलिए नहीं कि मार्ग दूर है; नहीं चल पाते तो इसलिए कि तुम जैसे हो उस होने में चलने में अवरोध आता है। ऐसा समझो कि मार्ग तो सपाट है, कंटकाकीर्ण नहीं, लेकिन तुम लंगड़े हो। तो मार्ग के सपाट होने से कुछ न होगा; तुम न चल पाओगे। लेकिन मन हमेशा यही कहेगा कि मार्ग कठिन है, इसलिए हम नहीं चलते। क्योंकि अहंकार मानने को राजी नहीं होता कि हम लंगड़े हैं। अंधे को भी अंधा कहो तो बुरा मानता है, झगड़ने पर उतारू हो जाता है। अंधे को भी सूरदास कहो तो प्रसन्न होता है, क्योंकि सूरदास शब्द से अंधे का कुछ सीधा संबंध नहीं जुड़ता। या अगर और तुम कुशल हुए तो अंधे को तुम कहोगे प्रज्ञाचक्षु। तब अंधा और प्रसन्न होता है। अब शरीर की आंखों के खोने से कोई प्रज्ञाचक्षु नहीं होता, और न ही सभी अंधे सूरदास होते हैं। लेकिन औपचारिकताएं सत्य को छिपाने के उपाय हैं। किसी भी स्त्री की शादी हो, सभी दुलहनें, लोग आते हैं, कहते हैं, कैसी सुंदर है! तुमने कभी किसी को कहते सुना किसी दुलहन को कि सुंदर न हो। और जब भी कोई आदमी मर जाता है तो सभी कहते हैं, स्वर्गीय हो गए। जिंदगी में जिनको नरक में भी जगह न मिलती, मर कर वे सभी स्वर्ग जाते हैं। सुंदर स्त्री खोजना कठिन है, लेकिन सभी दुलहनें सुंदर होती हैं। _ औपचारिकता का जाल है। और औपचारिकता के जाल में तुम सत्य को छिपाते हो। नहीं चल पाते हो तो यह नहीं सोचते कि मैं लंगड़ा हूं; नहीं देख पाते हो तो यह नहीं सोचते कि मैं अंधा हूं। नहीं देख पाते तो कहते हो, अंधेरा है। नहीं चल पाते तो कहते हो, मार्ग ऊबड़-खाबड़ है। कहावत तो सुनी है नः नाच न आवे आंगन टेढ़ा। जब नाच नहीं आता तो लोग कहते हैं, आंगन टेढ़ा है, नाचें कैसे! नाच आता हो तो आंगन टेढ़ा हो कि चौकोर, क्या फर्क पड़ता है? आंगन के टेढ़ेपन से नाचने का क्या लेना-देना? लेकिन नाच आता हो। पहली बात, इसके पहले कि हम सूत्र में प्रवेश करें, यह समझ लेने की है कि सत्य बहुत सरल है। सारी जटिलता तुम्हारे मन की है। सारा उलझाव तुम्हारे भीतर है। बाहर तो सब सुलझा पड़ा है। रास्ता बिलकुल खुला है। न 91
SR No.002375
Book TitleTao Upnishad Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1995
Total Pages440
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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