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सारा जगत ताओ का प्रवाह है
तो परमात्मा को लाओत्से एक प्रवाह मानता है-पूर्णता का प्रवाह। हजारों तरह की पूर्णताएं हो सकती हैं। जब एक फूल खिलता है तब परमात्मा फूल में पूर्ण होता है। और जब एक नदी बहती है तो परमात्मा नदी में पूर्ण होता है। और जब एक बुद्ध का व्यक्तित्व अपनी पूर्णता में आता है, पूर्णिमा बनती है जब बुद्ध के व्यक्तित्व की, तब परमात्मा बुद्ध में पूर्ण होता है। एक पक्षी में भी पूर्ण होता है; एक पत्थर में भी पूर्ण होता है। अनंत पूर्णताएं हैं। क्योंकि जगत प्रवाह है। यहां पूर्णता कोई एक भी नहीं है। और एक पूर्णता अपने आप में यूनीक, अद्वितीय है; दूसरे से उसकी तुलना का भी कोई सवाल नहीं है।
लाओत्से कहता है, जीवन एक प्रवाह है। और इस प्रवाह को ठोस, बंधी हुई धाराओं में, जमे हुए शब्दों में सोचना गलत है।
इसलिए जब हम परमात्मा को सोचते हैं तो हमें ऐसा लगता है कि किसी न किसी दिन परमात्मा को पा लेंगे, कब्जा कर लेंगे। लाओत्से के परमात्मा पर आप कब्जा न कर पाएंगे। आप जिस परमात्मा को सोचते हैं, आपकी धारणाएं कब्जा कर लेंगी-बांसुरी बजाने वाले कृष्ण पर, धनुर्धारी राम पर-कोई एक धारणा है आपकी, उस पर आपका कब्जे का भाव है कि आप कब्जा कर लेंगे, उसको पजेस कर लेंगे। लेकिन लाओत्से के परमात्मा को आप कभी भी पजेस न कर पाएंगे। वही आपको पजेस करेगा। आप उसमें डूब जाएंगे। उसको आप मुट्ठी में न ले पाएंगे।
इसलिए लाओत्से कहता है, परमात्मा को, सत्य को या ताओ को हम कभी उपलब्ध नहीं कर सकते मुट्ठी में; हम स्वयं को उसमें लीन कर सकते हैं। वही उपलब्धि है।
तो पहली तो बात कि सब तरफ वही है। इस भाव के उठते ही निंदा खो जाती है। इस भाव के उठते ही विरोध गिर जाता है। इस भाव के उठते ही आपकी सब व्याख्याएं व्यर्थ हो जाती हैं। और अगर यह भाव मन में गहरा हो जाए तो आप अचानक पाएंगे कि जहां आपको कल बुरा दिखाई पड़ता था वहां भी अब बुरा दिखाई नहीं पड़ता।
समझें! अभी मैं एक वैज्ञानिक का जीवन भर का अनुसंधान देख रहा था। उसने पूरे जीवन दुख, पीड़ा के ऊपर, कष्ट के ऊपर काम किया है। जब भी आपको पीड़ा होती है तो आपको लगता है कि परमात्मा नहीं हो सकता। क्योंकि इतनी पीड़ा क्यों है? इसलिए जो भी हम मोक्ष की धारणा करते हैं उसमें पीड़ा को हम कोई जगह नहीं देते। असंभव। अगर मोक्ष में भी पीड़ा होती हो तो फिर काहे का मोक्ष? पीड़ा तो यहां है। और नरक में पीड़ा ही पीड़ा है। मोक्ष में पीड़ा बिलकुल नहीं है। और हम मध्य में हैं दोनों के। और यहां पीड़ा भी है और सुख भी है, और दोनों के बीच हम डोल रहे हैं। जहां भी हमें पीड़ा दिखाई पड़ती है वहीं लगता है कि परमात्मा कैसे हो सकता है ? नास्तिकों की ईश्वर के खिलाफ जो दलीलें हैं उनमें एक यह भी है कि अगर परमात्मा है और करुणावान है और जैसा जीसस कहते हैं कि प्रेम है परमात्मा का स्वरूप, तो इतना दुख क्यों है?
यह वैज्ञानिक जीवन भर दुख की तलाश कर रहा था कि दुख है क्या? और उसकी जीवन में उपयोगिता क्या है? क्योंकि है तो उपयोगिता होगी। तो वह एक अनूठे नतीजे पर पहुंचा। कुछ ऐसे बच्चे पैदा होते हैं, बहुत कभी-कभी, जिनको संवेदन नहीं होता दुख का, जिनके शरीर के कुछ तंतु खराब होते हैं और उनको पीड़ा का अनुभव नहीं होता। आपके शरीर में कुछ तंतु हैं जो पीड़ा की खबर ले जाते हैं; वे तंतु अगर काम न कर रहे हों तो पीड़ा की खबर नहीं मिलेगी। लेकिन ऐसे बच्चे जी नहीं पाते, मर जाते हैं। क्योंकि उनके हाथ में आग लग जाए तो वे हाथ को हटाएंगे नहीं। उनको पीड़ा होती ही नहीं।
ऐसे बच्चों के संबंध में बड़ी अदभुत बात है कि वे अपने भोजन के साथ अपनी जीभ भी चबा लेते हैं, क्योंकि उनको पीड़ा होती नहीं। वे अपनी जीभ को काट कर खा जाते हैं, चबा जाते हैं; उनको पता ही नहीं चलता। क्योंकि जीभ का आपको पता जीभ के कारण थोड़े ही चलता है, उसमें जो पीड़ा होती है उसके कारण पता चलता है। अगर
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