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________________ ताओ उपनिषद भाग ४ 48 वृक्ष भी पूर्ण है। बीज की पूर्णता बह कर वृक्ष की पूर्णता बन गई। और इसीलिए तो बीज वृक्ष बनेगा और वृक्ष फिर बीज बन जाएगा। नहीं तो फिर पूर्ण कैसे बीज बनेगा? फिर पूर्ण कैसे अपूर्ण बनेगा? बीज से वृक्ष जन्मता है और वृक्ष में फिर करोड़ों बीज जन्म जाते हैं। फिर वृक्ष; फिर बीज । और एक समग्रता परिवर्तित होती रहती है। लेकिन प्रतिपल सब समग्र है। बच्चा समग्र है, और उसका अपना सौंदर्य है। और जवान भी समग्र है, और उसका अपना सौंदर्य है। कोई जवान बच्चे से ज्यादा पूर्ण है, यह बात अलग है। बच्चे की पूर्णता एक ढंग की है; जवान की पूर्णता दूसरे ढंग की है। दोनों में कोई तुलना नहीं है। फिर बूढ़े की पूर्णता बिलकुल तीसरे ढंग की है। उनमें कोई तुलना नहीं है। लेकिन तीनों अपनी-अपनी अवस्थाओं में समग्र हैं। तो लाओत्से नहीं कहता कि बच्चे को जवान होने की कोशिश में लगना चाहिए; लाओत्से कहता है बच्चे का बचपन समग्र होना चाहिए। उस समग्रता से दूसरी समग्रता पैदा होगी। जवानी को कोई बूढ़ा होने की चेष्टा में नहीं लग जाना चाहिए; जवानी को समग्र होने की चेष्टा करनी चाहिए। होलनेस, टोटैलिटी, पूर्णता यहां कोई शिखर की भांति नहीं है। पूर्णता यहां सब कुछ हो जाना है। जो भी हो सकता है जवान, वह उसे पूरी तरह हो जाना है। इस पूर्णता से वृद्धावस्था की पूर्णता निकलेगी। और जीवन जब पूर्ण होता है तो उससे पूर्ण मृत्यु का जन्म होता है । और जीवन जब समग्र होता है तो मृत्यु भी समग्र हो जाती है, अखंड हो जाती है। इन दोनों में फर्क को ठीक से समझ लें। ऐसा समझें कि एक फूल है। अगर हम पूर्णतावादी हैं, परफेक्शनिस्ट हैं, तो हमारी फिक्र यह होगी कि फूल सारे दूसरे फूलों के मुकाबले सबसे ज्यादा सुंदर हो जाए, सबसे ज्यादा बड़ा हो जाए। मेरे बगीचे में एक माली था । उसके फूल हर वर्ष प्रतियोगिता में प्रथम आ जाते थे। तो मैं उसको 'पूछा कि तू करता क्या है? तो उसने कहा कि मैं एक पौधे पर एक ही फूल को लगने देता हूं, बाकी फूलों को काट देता हूं। तो जब बाकी फूल कट जाते हैं तो वह जो बेचैन धारा जीवन की उन फूलों से प्रकट होती, मजबूरी में एक ही फूल की तरफ प्रवाहित होगी, और एक फूल बड़ा हो जाएगा। लेकिन वह बड़ापन भी रुग्ण है। वह बड़ापन भी अपना नहीं है, शोषित है। प्रतियोगिता में प्रथम आ जाएगा, लेकिन वह फूल समग्र नहीं है। वह दूसरे पर जी रहा है, और प्रतियोगिता में, किसी दूसरे से तुलना में, बड़ा है। फूल की समग्रता अलग बात है। किसी आदर्श के अनुकूल होने की जरूरत नहीं है। फूल जो भी हो सकता था, उसके भीतर जो भी छिपा था, वह सब खिल जाए, उसके भीतर कुछ दबा न रह जाए; यह समग्रता है। किसी दूसरे से तुलना करने की और उसकी पूर्णता की कोई दृष्टि नहीं है। अगर आप पूर्ण होने की कोशिश में लगे हैं तो आप हमेशा सोचेंगे कि मैं बुद्ध जैसा हो जाऊं, कि महावीर जैसा हो जाऊं, कि कृष्ण जैसा हो जाऊं। अगर आप समग्र होने की कोशिश में लगे हैं तो बुद्ध, महावीर, सब खो जाएंगे; तब आपकी एक ही चेष्टा होगी कि जो भी मैं हो सकता हूं वह मैं पूरा का पूरा हो जाऊं; मेरे भीतर कुछ अधूरा न रह जाए। मरते वक्त मुझे ऐसा न लगे कि कोई अंग मेरा अपंग रह गया। मरते वक्त मुझे ऐसा न लगे कि कोई फूल मुझमें खिल सकता था और नहीं खिल पाया; कोई बीज अंकुरित हो सकता था, बीज ही रह गया। मरते समय मैं इस भाव से विदा हो सकूं कि जो भी मेरे भीतर हो सकता था, जो भी मेरी नियति थी, वह पूरी हो गई । बुद्ध से कोई तुलना नहीं है । बुद्ध की अपनी नियति है; वे अपने ढंग से पूरे हो गए। आपकी नियति आपकी अपनी नियति है; आप अपने ढंग से पूरे होंगे। लाओत्से पूर्णता के लक्ष्य को नहीं मानता। क्योंकि पूर्णता का लक्ष्य बहुत खतरनाक है। और उसमें दमन अनिवार्य है। उसमें काट-पीट जरूरी है। उसमें हिंसा होगी ही। और पूर्णता का जो लक्ष्य है उसमें दूसरे से प्रतिस्पर्धा है; और दूसरे के साथ कलह और संघर्ष है। समग्रता, टोटैलिटी, मेरे भीतर कुछ भी अनखिला न रह जाए।
SR No.002374
Book TitleTao Upnishad Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1995
Total Pages444
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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