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ताओ उपनिषद भाग ४
ताओ या धर्म सभी को घेर लेने वाले अस्तित्व का नाम है।
लेकिन अड़चन है। अड़चन यह है, खासकर धर्मशास्त्रियों को, कि अगर परमात्मा सब जगह है तो निंदा करनी बहुत मुश्किल हो जाती है, फिर संघर्ष खड़ा करना बहुत मुश्किल हो जाता है। अगर सभी कुछ परमात्मा है तो फिर बुरा क्या है? फिर बुरा कुछ भी नहीं रह जाता। इसलिए धर्मशास्त्री भला कितना ही कहता हो कि सभी कण-कण में वही समाया हुआ है, पर उसकी बात में ईमानदारी नहीं होती। क्योंकि वह फिर भी कहे चले जाता है: यह गलत है, यह बुरा है, यह छोड़ना है, इससे हटना है, इससे पार होना है।
अगर परमात्मा सभी जगह है तो फिर क्या छोड़ना है? परमात्मा सभी जगह है, ऐसी जिसकी प्रतीति हो, उसको छोड़ने को कुछ भी न बचा। क्योंकि जो भी छोड़ा जाएगा वह भी परमात्मा होगा। उसे पाने को भी कुछ न बचा, क्योंकि पाने को तभी कुछ होता है जब कुछ छोड़ने को होता है। उसके लिए कुछ श्रेष्ठ न रहा और कुछ निकृष्ट न रहा। उसके लिए कुछ शुभ न रहा और कुछ अशुभ न रहा। उसके लिए पूरा जीवन एकरस स्वीकृत हो गया।
इस भय के कारण कि पूरा जीवन स्वीकार करने में हमें डर लगता है, हम परमात्मा को काट लेते हैं, और जो-जो हमें पसंद नहीं पड़ता उसे हम अलग कर देते हैं। हम अस्तित्व के दो टुकड़े कर लेते हैं। कुछ लोग अस्तित्व को दो हिस्सों में बांट देते हैं कि यह संसार है और वह मोक्ष है, और संसार और मोक्ष को विपरीत संघर्ष में जुटा देते हैं। फिर जीवन की एक ही खोज रह जाती है कि कैसे संसार से छुटकारा हो और कैसे मोक्ष की उपलब्धि हो। इस अस्तित्व को बांटने से वासना का जन्म होता है, वासना मिटती नहीं। नई वासना का जन्म होता है कि संसार कैसे छूटे और मोक्ष की कैसे प्राप्ति हो। और जब तक वासना है तब तक मोक्ष की कोई प्राप्ति नहीं हो सकती। क्योंकि मोक्ष का अर्थ ही है निर्वासना; मोक्ष का अर्थ ही है कि अब कोई चाह न रही। इसलिए मोक्ष की चाह भी मोक्ष में बाधा है।
लाओत्से के विचार में प्रवेश के पहले ये सारी बातें खयाल में ले लेनी जरूरी हैं। जब भी हम जगत को बांटेंगे तो वासना का जन्म होगा। सिर्फ अनबंटे जगत में वासना का जन्म नहीं होगा। या तो हम कहते हैं संसार और मोक्ष, या हम कहते हैं शैतान और ईश्वर। तब हम कहते हैं शैतान बुरा है और ईश्वर भला है। तो सारे संसार की जो. बुराई–हमें जो बुराई मालूम पड़ती है-वह हम शैतान पर थोप देते हैं। और जो भी हमारी धारणा में भलाई है वह हम परमात्मा पर थोप देते हैं। तब शैतान से बचना है और परमात्मा को पाना है। लेकिन वासना पैदा होगी। जहां चुनाव है वहां वासना से छुटकारा कैसे होगा? सिर्फ अचुनाव में, च्वाइसलेसनेस में वासना गिर सकती है; उसके . पहले वासना नहीं गिर सकती।
लाओत्से की बात ठीक से समझ में आ जाए तो वासना छोड़नी नहीं पड़ती; वासना का उठना ही असंभव हो जाता है। और जिस वासना को छोड़ना पड़े वह छूटेगी नहीं; क्योंकि वासना को छोड़ने की कोशिश में भी आप और किसी वासना का सहारा लेंगे। जब भी आप एक वासना को छोड़ेंगे तो दूसरी वासना के सहारे छोड़ेंगे। तो एक छूट जाएगी और दूसरी पकड़ जाएगी। और तब इलाज बीमारियों से भी ज्यादा बदतर सिद्ध होते हैं। क्योंकि एक बीमारी हटती नहीं कि जिसे हमने औषधि समझी थी वह बीमारी हो जाती है, और वह हमें पकड़ लेती है।
इसलिए संसार को छोड़ कर भागने वाला जो संन्यासी है उसका संन्यास भी एक रोग है। होगा ही। क्योंकि उसके संन्यास में समग्रता नहीं है। वह भी एक खंड है; तोड़ कर, बचा कर, जबरदस्ती, आस-पास दीवालें खड़ी करके वह संन्यास को बचा रहा है। और जिस संन्यास को बचाना पड़ता हो वह मुक्ति नहीं ला सकता। और जिस संन्यास को किसी चीज के विपरीत खड़ा हो वह अपने विपरीत से जुड़ा रहता है; वह विपरीत का ही हिस्सा होता है। उसका प्राण अपने विपरीत में ही होता है। संसार के विपरीत जो संन्यास होगा वह संन्यास नाममात्र को होगा; वह एक नए ढंग का संसार होगा। शक्ल बदल जाएगी, व्यवस्था बदल जाएगी लेकिन मूल रोग अपनी जगह होगा।
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